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  • अर्हंत दर्शन
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1. ईश्वर की सत्ताः- ब्रह्म/परमेश्वर/परमात्मा, निर्गुण, निराकार, अविनाशी, और सर्वव्यापक है लेकिन यह माया की उपाधि या प्रकृति से युक्त होकर सगुण और साकार हो जाता है।

2. शिव-निर्गुण, शक्ति-सगुणः-ब्रह्म की निर्गुण सत्ता शिव है और सगुण सत्ता प्रकृति (शक्ति) है। यह प्रकृति ही निर्गुण पारब्रह्म की माया शक्ति है।

3. ब्रह्म और जगतः-ब्रह्म जगत की आत्मा है और जगत ही प्रकृति अर्थात् ब्रह्माण्ड है।

4. ब्रह्म की स्थितिः-ब्रह्म की निर्गुण सत्ता अकर्त्ता की स्थिति है अर्थात् आत्मस्थिति। सगुण सत्ता कर्त्ता की स्थिति है अर्थात् प्रकृति ही कर्त्ता और निर्गुण ब्रह्म दृष्टा है।

5. ब्रह्म और प्रकृति का स्वरूपः-परमात्मा/आत्मा और प्रकृति दोनों अनादि है। आत्मा की उपस्थिति के कारण प्रकृति स्वयं अव्यक्त से व्यक्त रूप में बदलती रहती है।

6. स्थाई और अस्थाई सत्यः-ब्रह्म स्थाई सत्य है और प्रकृति (ब्रह्माण्ड) अस्थाई सत्य है।

7. जीवात्मा (जीव़आत्मा)ः-आत्मा का विकारवान प्रकृति से मिलन के कारण, जब आत्मा शरीर, इन्द्रिय, और मन इत्यादि से युक्त हो जाता है तो वह जीवात्मा कहलाता है।

8. जीवः-याद रहें कि आत्मा सदैव स्वतन्त्र है। जीव अज्ञान या अविद्या (माया) की सर्जना है। वह तत्व जो देह और आत्मा से संबंध रखता है, जीव कहलाता है। जीव ही चित्त है और चित्त ही कर्त्ता और भोक्ता है। जीव शरीर और प्राण का आधार है। 

9. जीव की प्रकृतिः- जीव सांसारिक है, प्रकृतिजन्य है, विकारवान है। 

10.जीव और आत्मा का संबंधः- आत्मा स्वतन्त्र है। आत्मा के होने के कारण ही जीव गतिवान है। इसके फलस्वरूप जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है।

11.जीवात्मा की भ्रांतिः-अविद्या (माया) की वशीभूत जीवात्मा अपने आपको ब्रह्म (परमात्मा) से भिन्न समझने लगती है और बन्धनग्रस्त होकर सुख-दुःख का भागी बनता है। नाना शरीरों में, नाना प्रकार के जीव, देखने में, इन्द्रिय दृष्टिकोण में अलग-अलग प्रतीत होते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि नाना दिखने वाले जीव के पीछे एक ही परमात्मा तत्व है। 

12.जीवात्मा की मुक्तिः-जब जीवात्मा को ब्रह्म/आत्म/ परमात्मा को अपने स्वतन्त्र आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है, उस समय वह ब्रह्म-स्वरूप या आत्म-स्वरूप होकर अविद्या के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। अब उस जीवात्मा (जीव़आत्मा) के लिए जीव भाव अर्थात् ष्मैंष् भाव (कर्त्तापन) सदा के लिए मिट जाता है और वह ब्रह्म-स्वरूप हो जाता है। मुक्ति का उपाय केवल अद्वय स्वरूप निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से ही संभव है।

13.जीवनमुक्ति(निर्वाण)और विदेह मुक्ति (महापरिनिर्वाण)ः जीवन मुक्ति अर्थात् जीते जी आपने मुक्ति को पा लिया, जीते जी आपने परमात्मा/ब्रह्म को जान लिया या परमात्मा स्वरूप हो गए या उसके साथ विलीन हो गए। विदेह मुक्ति यानी कि महा-परिनिर्वाण, महासमाधि।

14.सही मार्गः-जीव अपने स्वभाव के अनुसार चाहे किसी भी मार्ग से-ज्ञान, ध्यान, जप, योग, प्राणायाम, निस्वार्थ-सेवा, प्रेम और भक्ति से परम ईश्वर को प्राप्त करता है जो बिना किसी गुण के निराकार है, जो समय व स्थान से परे है, जो कार्यकरण संबंध से परे है।

15.सच्ची भक्तिः-बाहरी कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ से परे हृदय की शुद्धता और ईश्वर के प्रति प्रेम करना ही सच्ची भक्ति है।

16.गुरूकृपाः-गुरू के सान्निध्य, गुरू से संवाद और गुरू की कृपा भी मुक्ति के लिए सहज उपाय है।

17.सेवा और प्रेमः-हमारे जीवन का आधार सेवा और प्रेम होना चाहिए। सभी जीवां के प्रति निस्वार्थ प्रेम, करूणा, दया और क्षमा का भाव होना चाहिए।

18.कर्म की प्रधानताः-व्यक्ति का कर्म ही उसके भाग्य को निर्धारित करता है, ना कि कोई जाति, धर्म, जन्म, और ईश्वर।

19.परम्पराः-धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं से ऊपर उठकर सत्य को महत्त्व दें।

20.धन संग्रहः-जरूरत से ज्यादा धन संग्रह ना करें। अगर जरूरत से ज्यादा धन हो तो उसे सत्कर्म में जरूरतमंद लोगों की मदद करें, प्यासों को पानी पिलायें, भूखों को भोजन खिलाएं, समाज-व्यवस्था और लोक-कल्याण में लगाएं।

21.समानताः-जाति, वर्ण, धर्म और लिंग से परे उठें। सभी मनुष्य समान हैं। व्यक्ति की पहचान उसके कर्मों से होती है न कि उसकी जाति से, जिसमें उसने जन्म लिया है।



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