अपनी इच्छाओं के साक्षी बनो
साक्षी बनकर देखने का मतलब है, अन्दर में कोई इच्छा उत्पन्न हुई, कोई भी इच्छा, जैसे गुस्सा करने को मन आया, गाली देने का मन किया, कुछ प्राप्ति करने का मन किया, किसी इंसान के प्रति कुछ भी मन में उत्पन्न हुआ, कुछ भी विचार आया, उसको बस देखना है अन्दर। बस देखना है साक्षी बनकर। बहुत जल्द हमारा नया जन्म होगा।
ब्रह्म ही आत्मारूपी साक्षी है
दृष्टा भाव में वह, आत्मा अभी देख रही है कि शरीर आपका बैठा हुआ है, शरीर में दर्द हो रहा है, सूंघ रहा है। वह अभी भी साक्षी है आपके अंदर। वह तीनों अवस्थाओं में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था का साक्षी बना हुआ है। हर क्षण वह साक्षी बना हुआ है। जब साधक को आत्मानुभूति हो जाती है, तो वह आत्मिक, साक्षी स्थिति में रहता है। मन में क्या विचार चल रहा है? वह मात्र उसका दृष्टा है। उसके अंदर में जो भी प्रक्रियाएं चल रही है, उसका वह साक्षी मात्र बन जाता है। और यह साक्षी सर्वव्यापी, सर्व-सनातन, सत्चित्त आनन्दस्वरूप ब्रह्म है, परम ईश्वर है, परम् आत्मा है।
वर्तमान के मालिक आप हो, वर्तमान में जीओ
वर्तमान के मालिक आप हो। अपने वर्तमान को कैसे जीना है, यह आपके ऊपर निर्भर है। वर्तमान में बहुत बाधाएँ है लेकिन मैं वर्तमान में कैसे जीऊँ। सकारात्मकता के साथ जीऊँ या नकारात्मकता के साथ? मेरे सामने बाधाएँ है, लेकिन मैं इन्हें साक्षी बनकर देख रहा हूँ। अपने एक शून्य के केन्द्र पर आकर, सारी बाधाओं को देख रहा हूँ। सारी समस्याओं को देख रहा हूँ। जितने सारे प्रपंच चल रहे हैं, उनको मात्र साक्षी बनकर देख रहा हूँ। ये सब मेरी परिधि है मैं केन्द्र पर हूँ।
वर्तमान का मतलब है, कुछ भी नहीं है अर्थात् न समस्याएं है, न भविष्य की चिन्ताएँ है, न अतीत की कोई चिन्ताएँ है। वर्तमान में हो यानी सिर्फ हो। ये बाधाएँ आ ही इसलिए है ताकि आप आध्यात्मिक के उस छोर तक पहुँचें। ये आपकी परीक्षाएँ है। फल है परम शांति।
ना त्यागना, ना पकड़े रहना, बस होने में रहना।
संसार के प्रति जो आसक्ति है, उस आसक्ति को त्यागना है। आपके अंदर जो अज्ञानता है, जो भ्रम है, जो काम, क्रोध, मोह, लोभ, माया, राग, द्वैष, अशांति जो कुछ भी है और इस संसार के प्रति जो कुछ भी आपकी आसक्ति है, उन सबको आपको त्यागना है। अन्दर से त्यागना है। इनकी प्रवृत्ति नहीं हों, ये स्वभाव का हिस्सा न बनें।
यह संसार दुःखों का कारण नहीं अपितु इस संसार के प्रति आपकी आसक्ति ही आपके बंधन का कारण है। इन्हें त्यागना है। अगर आप ऐसा करते है तो आप शून्य के केन्द्र में रहेंगे और सबसे प्रेम करेंगे, निस्वार्थ भाव से।
त्यागना भी भागना होता है। ना आप त्यागेंगे और ना आप किसी से चिपकेंगे। बस होंगे। जैसा हो रहा है, आप उसमें है।
समस्त कार्य करने वाली इन्द्रियां मैं नहीं हूँ, मैं तो मात्र दृष्टा हूँ
पंच ज्ञानेन्द्रियां-आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा और पंच कर्मेन्द्रियां-हाथ, पैर, मुंह, गुदा और जनेन्द्रियां और एक अतीन्द्रिय जिसे हम मन कहते है। ये ग्यारह इन्द्रियां अपने समस्त कामों में व्यस्त है। सभी कार्य ये कर रही हैं। मैं तो मात्र इनको देख रहा हूँ और ये देखने वाला ही श्मैंश् हूँ। ये दृष्टा श्मैंश् हूँ। ये आब्जर्वर, जानने वाला जो श्मैंश् जान रहा हूँ कि क्या चल रहा है अन्तर जगत में? ये जानने वाला सर्व, सनातन, शास्वत, अनादि, आत्मा है।
विचारों से कैसे मुक्ति मिलेगी?
मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं। उन्हें मात्र देखें। देखना है बस। दृष्टा बनकर देखना है। आधा-एक घण्टा किसी शांत स्थान पर बैठकर अपने विचारों को देखते रहिए। चलते-फिरते हुए भी अपने विचारों को देखते रहें। रोकने का प्रयास बिल्कुल नहीं करें। एक समय आयेगा जब देखने वाला कोई और हो जायेगा और मन का स्तर अलग हो जायेगा। जिस प्रकार हमारी आँखें स्वयं को नहीं देख सकती लेकिन दूर से दूर चीजों को देख सकती है उसी प्रकार एक विचार दूसरे विचार को नहीं देख सकता है। तो देखने वाले को शून्य होना पड़ता है।
चलते-फिरते बस ये करों और परमात्मा को पा लों।
चलते-फिरते ये ध्यान में रखें कि मैं नहीं चल रहा हूँ, मैं नहीं बोल रहा हूँ, मैं नहीं खा रहा हूँ, मैं श्वांस नहीं ले रहा हूँ, मैं नहीं सो रहा हूँ। यह शरीर और इन्द्रियाँ अपने कर्मों में व्यस्त है। मैं इन सबके परे, अनछुआ, साक्षी, सनातन, अजन्मा, सत्-चित्त आनन्द स्वरूप निराकार वह ब्रह्म हूँ, वह आत्मा हूँ, वह ईश्वर हूँ।
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