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तुम्हें यह भ्रम मात्र है कि तुम कर रहे हों

आपमें कर्त्तापन की भावना बिल्कुल समाप्त हो जाएं, जैसे-मैं कुछ कर रहा हूँ, कर रही हूँ। मैं करता हूँ, मैं करने वाला हूँ। ऐसी भावना बिल्कुल समाप्त हो जाएं। फिर आप कर्त्ता से दृष्टा बन जाते हों। साक्षी मात्र बन जाते हों। भगवत गीता में भगवान कृष्ण भी यह कहते है, तुम कोई क्रिया नहीं कर रहे हो। प्रकृति के तीन गुण- सत, रजस, तमस ये तीन गुण ही क्रियाशील है और ये अपने स्वभाव के अनुसार, अपने गुणों के अनुसार कार्यरत हैं। आपके यह भ्रम मात्र है कि तुम कर करे हो।

जब तक भीतर कर्त्ता है तब तक दुःख है

जब तक भीतर कर्त्ता है तब तक दुःख है। कर्त्तापन खत्म, दुःख खत्म। सत्य की उपलब्धि उपरान्त आप नहीं रहते हों, सिर्फ सत्य रहता है, याद रखना इस बात को। जिस दिन आपने सत्य को पा लिया, उस दिन आप मर गये, मिट गये, खत्म हो गये। अब आपकी कुछ भी चीजें नहीं रही। आप है ही नहीं। आप है तो सत्य नहीं है और सत्य है तो आप नहीं है। जैसे ही आपने सत्य को पाया, तो सिर्फ सत्य है, सिर्फ एक चेतना है। वह चेतना ही अपने आप को व्यक्त कर रही है, अलग-अलग आयामों में। और आप जब तक है तो कर्त्तापन की भावना है। कोई गुरू जब कहता है कि मैं गुरू हूँ, तो वह भी कर्त्तापन की भावना है।

झूठी खुशी के पीछे सब पागल है

समाज के लोग भ्रमित है। इनको खुश होने के लिए कुछ कारण चाहिए। या तो अच्छे कपड़ें चाहिए, अच्छा खाना चाहिए, ज्वैलरी चाहिए। कोई इच्छा पूरी हो गई तो खुश हो गये। ये तो हार्मोन्स उत्पन्न होते हैं शरीर में और इन हार्मोन्स के रिएक्शन के कारण मेंटल स्टेट ऐसी बनती है कि हम क्षणिक खुश हो जाते है। इस प्रकार से तो ये सब लोग भी ड्रग्स के ही शिकार है। जैसे मुझे इम्पोर्टेन्स चाहिए, मुझे महत्त्व मिलता है तो मैं खुश होता हूँ। अच्छा लगता है। तब तो आप ड्रग्स के व्यसनी हो। इसी प्रकार, आपको इज्जत, सम्मान, तारीफ मिलें तो खुशी और नहीं मिलें तो फिर? कैसे मिलें? कैसे मिलें? तनाव में।

लोग अपनी सुन्दरता को बढ़ाते, परफोर्मेंस को बढ़ाते, कपड़ों से सजाते, अच्छे-अच्छे फोटों लेते और सोशल मिडिया पर डालते और देखते कि कितने कमेंट्स रहे हैं? वे मुक्त नहीं, बंधे हुए है। 

असल 'मैं' तो ब्रह्म का स्वरूप है

जब हम 'मैं' कहते है, व्यक्तिगत जो 'मैं' है उसे हम जीव कहते है। असली मे एक ओर 'मैं'  है जो कि ब्रह्म का स्वरूप है। वह एक ही है। वो दो नहीं है। उसी 'मैं' को आत्मा कहते है कि मैं ही ब्रह्म हूँ। जबकि हम इस शरीर को 'मैं'  के रूप में अनुभव करते है। यह तो अहम् भाव है। जब तक अहम भाव है तब तक ब्रह्म को नहीं जाना जा सकता। तो व्यक्तिगत 'मैं' को जीव कहा जाता है।

सत्य को छोड़कर सब कुछ अहंकार है

सत्य को छोड़ जो भी ज्ञान है, वह भ्रम पैदा करता है, भ्रति पैदा करता है, वह अहंकार है। आपके अन्दर आपके विचार, आपकी इच्छाएँ, दबाव, संस्कार, छाप, धारणा ये सभी आपको वहाँ, ब्रह्म तक पहुँचने नहीं दे रहा। जबकि लोग इन्हें ही सत्य मान लेते हैं। प्रकृति में जो भी व्याप्त चीजें है, उनको ही लोग सत्य मान लेते हैं लेकिन है वो अहंकार। अहंकार को ही सत्य मान लेते है।

 

असली सन्यासी वह है जिसने अंदर से सब कुछ त्याग कर दिया

असली सन्यासी कौन है जिसने अंदर से हर चीज का त्याग कर दिया है। एक दूसरे सन्यासी भी होते हैं, जो केवल वेशभूषा वाले सन्यासी होते हैं जो केवल बाहर से सन्यासी दिखते हैं जो लाल, सफेद, काले, गैरूआ वस्त्र पहन लेते हैं, ललाट रंग लेते हैं, तिलक लगा लेते हैं, बाल-दाढ़ी बढ़ा लेते हैं, स्थान-स्थान पर घूमते हैं। वो केवल शरीररूपी सन्यासी होते हैं।

जबकि असली घटना तो अन्दर घटती है। जब वह घटती है तो वह आपको सन्यासी बना देती है। वह आपको सन्त बना देती है। सन्त अर्थात् जो अन्दर से शान्त हो चुका है। स्वयं के अर्थ को समझ गया है, स्वयं के अन्त को समझ गया है। अब वह ही सन्त है। अब वह भले चश्मा पहनें, जींस पहनें या वह टी-शर्ट पहनें, उससे कोई मतलब नहीं है अब।

यदि कपड़े पहनकर सब सन्यासी हो जायेंगे तो सबको पहना दों, सब शान्त हो जायेंगे। बड़ा-बड़ा टीका सबको लगा देते हैं और सबको शान्त कर देते हैं। देश में जो भी नकारात्मक घटनाएँ घट रही है वह सब बन्द हो जाती।


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