शास्त्रों में मीठी-मीठी बातें लिखी गई हैं। बहुत प्रेम भाव की बातें लिखी गई है। आज हम उन गुरुओं को याद करते हैं कि वो ऐसे थे, वो वैसे थे। बुद्ध की बात हो या गुरु नानक देव या कबीर की, वो अब हमारे सामने नहीं हैं ना, तो उनकी बातें पढ़ना और सुनना हमें अच्छा लगता है। उनके शास्त्र पढ़ना बहुत अच्छा लगता है, लेकिन अगर आज वो जीवित हो जाएँ, तो आप घबरा जायेंगे। जीवित गुरू के पास बैठोगे तो अंदर से घबराहट होगी कि पता नहीं वो मुझसे क्या करवायेंगे, पता नहीं कैसी बातें कहेंगे, पता नहीं कब मेरी इज्जत तार-तार कर देंगे, वह भी पूरी महफिल में, पूरी सभा में। इज्जत की धज्जिया मतलब अहंकार की धज्जियां।
तो सद्गुरू सीधे अहंकार पर तीर चलाता है, उसे अंदर तक हिला देता है, झकझोर देता है। तो फिर अहंकार बोलता है कि उसके पास मत जाना, क्योंकि अहंकार मरना नहीं चाहता। याद रखना, अहंकार फैलना चाहता है, पर मरना नहीं चाहता है। अहंकार इतना चाहता है कि पूरी दुनिया मुझे जानें। अहंकार इतना चाहता है कि मेरे पास खूब सारा पैसा हो। अहंकार इतना चाहता है कि मेरी कीर्ति चारों तरफ फैलें, सब मेरे लिए ताली बजाएँ। अहंकार फैलना चाहता है, मरना नहीं चाहता है। जब वह बहुत दुखी हो जाता है, ऐसा लगता है कि मैं बहुत सिकुड़ गया हूँ, अब कोई उपाय नहीं है, फैलने का कोई रास्ता नहीं है, सभी रास्ते बंद हो गए हैं, अब वे संकरे हो गए हैं। उसे लगता है कि सभी दरवाजे बंद हो गए हैं, तो वह क्या करे? अंत में उसे एक ही रास्ता दिखता है और वह है आत्महत्या। फिर वो मरना चाहता है। वो आत्महत्या क्यों करना चाहता है क्योंकि वह दुःखों से छुटकारा पाना चाहता है। उनके लिए, आत्महत्या भी दुखों से छुटकारा पाने का एक उपाय है, वरना कोई भी आत्महत्या नहीं करता। अभी भी वह आनन्द पाने की खोज में है और इसके लिए संसार से छुटकारा पाना चाहता है।
साधु संत भी भीतर से फैल जाते है, बाहर से नहीं फैलते है। वे ऊर्जाओं के स्तर पर फैल जाते हैं, मिट जाते हैं। इतने मिट जाते है कि भीतर जो सांस चल रही है, इस प्राण वायु को रोक कर, बस बाहर आना चाहता है या शरीर को छोड़ना चाहता है। इसे समाधि, महा समाधि, महा परिनिर्वाण कहते हैं। दोनों शरीर को छोड़ते है, रोगी बेहोशी में और योगी होश में। रोगी जीवन-मरण के चंगुल में बंधा रहता है पर योगी मुक्त हो जाता है। हमारा ध्येय योगी बनाना है। साधकों को यहाँ से निकालना, हमारा काम है।
मूल बात यह है कि अहंकार जो है वह मरना नहीं चाहता है, यानी कोई भी मरना नहीं चाहता है। लेकिन अगर आप गुरु के पास रहेंगे तो क्या होगा कि देखिए, जब आप लोग ध्यान करते हैं, तो मन जो है, वह अंदर जाना नहीं चाहता है; क्योंकि मन जानता है कि अगर मैं बहुत गहरे ध्यान में चला गया, तो पता नहीं, सांस भी बंद हो जाएगी, पता नहीं कहीं मर न जाऊँ। अगर आप में से कोई गहरे ध्यान में गया है, तो आपने वह पल देखा होगा, जब आपको लगा कि मैं मरने वाला हूँ, फिर आप जाग जाते हैं और फिर आपको एक डर पकड़ लेता है। ऐसा लगेगा कि जैसे मेरी साँस अब बंद हो रही है, अब बंद हो रही है। कहीं मैं मर न जाऊँ। फिर मन कुछ न कुछ हरकत करवायेगा। या तो खुजली करवायेगा, दर्द की अनुभूति देगा। गहरे ध्यान में तो आप दर्द और खुजली से भी परे चले जायेंगे। शरीर का कुछ भी आभास होगा ही नहीं। पता भी नहीं चलेगा। तो मन अपनी पूरी ताकत लगाता है कि इसके ध्यान को मैं तुड़वा दूँ, इसे उठवा दूँ, क्योंकि मैं मरना नहीं चाहता।
मैं यह नहीं कहता कि सिर्फ मेरी बातों पर ही निर्भर रहें, आपके लिए पूरा ब्रह्मांड खुला है, इन बातों को आजमाने के लिए। यदि कोई साधक किसी सद्गुरु के सान्निध्य में चला गया, तो गुरू की नज़र तो उसके व्यवहार पर, उसके कार्यों पर, उसकी सूक्ष्म ऊर्जाओं पर रहेगी। तो साधक के भीतर जो राजसिक वृत्तियाँ हैं, अहंकार का जो संगठन है, वे घबरा जाता है। अगर इस गुरु के पास रहा, तो बहुत मुश्किल है, वह तो सब उधेड़ कर रख देगा। अब मैं आपको यह भी बता दूँ कि जो भी गुरु आपसे बहुत मीठी-मीठी बातें करते है, बड़े प्यार से बातें करते है, आपकी तारीफ करेंगे, समझ लेना, वहाँ कुछ होने वाला नहीं है। आपका अहंकार और ज्यादा बढ़ जायेगा। आप 20 साल, 30 साल, पूरा जीवन भी वहां बीता दें लेकिन आप कभी नहीं मिट पायेंंगे, कभी महाशून्य में नहीं समा सकेंगे, क्योंकि वहाँ आपके अहंकार को और चारा मिल रहा है, अहंकार भीतर स्वस्थ हो रहा है और वो मोटा-तगड़ा हो जायेगा, और अहंकार को क्या चाहिए? अहंकार सम्मान चाहता है, अहंकार प्रशंसा चाहता है, अहंकार संतुष्टि चाहता है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो अहंकार को चाहिए, और वही चीजें अगर कोई गुरु उसको दे रहा है तो उसको तो मजा आयेगा। और इसके विपरीत जब कोई देता है तो अहंकार बोलता है, भाग जा यहाँ से। कोई इज्जत ही नहीं कर रहा है। सम्मान ही नहीं कर रहा है, यह कैसा गुरु है। मैं तो ऐसे ही दुखी हूँ, मैं तो प्रेम माँगने आया था, मुझे प्रेम चाहिए था, शांति चाहिए थी, मुझे करुणा चाहिए थी, स्थिरता चाहिए थी, दया चाहिए थी लेकिन ये गुरु तो सिर्फ दुख ही दे रहा है। ये तो डांट ही लगा रहा है। सच तो यह है कि गुरू आपको डांट नहीं लगा रहा है, गुरू तो आपके अंदर की वृत्तियों को तोड़ने के लिए, विस्फोट करने के लिए, मिटाने के लिए, उन वृत्तियों से बात करते हैं। जैसे कि हम आपसे बात कर रहे हैं, तो वो आपकी वृत्तियों के माध्यम से ही बात करते है। आपको लगता है मुझे कह दिया। जब साधक के साथ गुरू का कोई संवाद होता है तो कोई साधक समझ नहीं पाता है, स्वयं को कनेक्ट नहीं कर पाता है तो फिर वह बिछड़ जाता है। इधर-उधर भटक जाता है।
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