Blogs

  • Home
  • Blog
  • मुझे शास्त्रों का कोई ज्ञान नहीं तो फिर ज्ञान कहां से आ रहा है?
Alamry6L1jtz8cov0piOI72JU.jpeg

मैं जब भी, कुछ भी बातें शेयर करता हूँ या लोगों से आध्यात्मिक चर्चाएं करता हूँ या जब भी लोग मुझसे प्रश्न करते हैं और मैं जो कुछ भी बताता हूँ, तो लोग मेरे बारे में ऐसा सोचते होंगे कि सर ने बहुत सारे शास्त्रों का अध्ययन हुआ होगा। नहीं, मुझे शास्त्रों का कोई विशेष ज्ञान नहीं है। थोड़ा बहुत मैंने दो चार चीजों को ही पढ़ा है, बस थोड़ा बहुत। मुझे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है और मैं इस बात की परवाह भी नहीं करता कि शास्त्रों में क्या लिखा है, कितने शास्त्र है, कौन-कौन से शास्त्र में क्या लिखा है। मुझे आत्मानूभूति के बाद में, थोड़ा बहुत मैंने देखा कि कौनसे शास्त्र में क्या है, वह भी केवल थोड़ा बहुत। आप मेरे घर, ऑफिस में जाकर देखें कि मेरे पास कितनी आध्यात्मिक किताबे है तो आप पायेंगे, केवल नाम मात्र की दो चार। मुझे पता ही नहीं शास्त्रों में क्या लिखा है और इतना सब पढ़ने जाएं तो बहुत समय लगेगा। 

जब भी मैं बोलता हूँ तो परम चेतना से परमशून्य चेतना से बोलता हूँ और मैं लोगों से भी कहता हूँ कि ये सारे शास्त्र कहां से आए, उसी परम चेतना से ही तो आए है। परम चेतना यानी कि प्योर कंशियसनेस से आए है। अब आप उसे अल्लाह कहिए, परमात्मा कहिए, ईश्वर कहिए, राम कहिए, कृष्ण कहिए, शिवा कहिए, कुछ भी कहिए। सब ज्ञान उसी परम चेतना से निकलकर आया हुआ। अगर कोई आत्मानुभूति कर लें, उसी परम चेतना में पहुंच जाएं, उसी शून्य में पहुंच जाएं, शून्य ही हो जाएं, खाली हो जाएं, पूरा का पूरा खाली हो जाएं,  बिल्कुल खाली जैसे आकाश खाली है तो पूरे आकाश में हर चीज समाई हुई हैं, पूरे आकाश में ब्रह्मांड समाया हुआ है। इसी प्रकार जैसे इस रूम में जहां आप लोग बैठे हैं, इस रूम में भी तो आकाश है, इस आकाश में ही यह रूम समाया हुआ है। जब व्यक्ति पूरा का पूरा अंदर से खाली हो जाता है, तो सब ज्ञान उसके अंदर आ जाता है। जब हम खाली हो चुके हैं, तो वहां पर परम शून्य है, परम चेतना है, वहीं से सारे शास्त्र निकल गए हैं। इसलिए शास्त्र में क्या है, क्या नहीं है, उनके पीछे पड़ने की जरूरत नहीं है। कभी कोई पढ़ी हुई बात सामने आ गई तो थोड़ा सा उद्धरण कर लेते हैं, रेफ्रेंस दे देते हैं कि ऐसा वहां भी उन्होंने कहा था है। लेकिन मेरे पास ऐसा कोई शास्त्र नहीं है जिनका मैंने गंभीरता से अध्ययन किया। मैं न तो संस्कृत जानता हूँ और न ही संस्कृतत के कोई शलेक जानता हूँ। केवल दो-चार श्लोक जानता हूँ क्योकि घर में पूजा-पाठ करते आ रहे थे। लेकिन जब मैंने इस परमतत्व को जाना, जानने के बाद, अपनी चेतना से ही बोलते हैं। 

यदि कोई शास्त्रों का अध्ययन कर लेते हैं और शास्त्रों का अध्ययन करके, पूरे दिमाग में भर लेते हैं तो वे भी ज्ञानी है लेकिन वे शास्त्रों को ढ़ो रहे है। दूसरो को शास्त्रों के उद्धरण उठा-उठा कर बता रहे है, क्यांकि वे रटे हुए है, लेकिन वे स्वयं ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए। यदि उनकी स्मृति से शास्त्र विस्मृत हो जाएं तो वे ज्ञान से लंगड़े-लूले बन जाते है। परन्तु जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाते है, जिन्हें आत्मानुभूति हो जाती है, उनकी चेतना से शास्त्र अपने आप निकलते है, रटने की जरूरत नहीं होती है। 

आज अधिकतर यही हो रहा है, आत्मानुभूति की कोई परवाह नहीं, बस शास्त्र पढ़ों और लेक्चर दो। देखिए, चारो ओर, बहुत सारे गुरु, महाराज, पण्डित, कथाकार हैं, सब शास्त्रों का लेक्चर प्रवचन दे रहे हैं। कोई बात नहीं ज्ञान ही बांट रहे है, बहुत अच्छी बात है, आप दीजिए, लोगों का कल्याण ही होगा। मैं नहीं कहता कि शास्त्रों में गलत लिखा है। लेकिन कहने-सुनने मात्र से आत्मबोध नहीं होता, उस पर चलना पड़ता है। शास्त्रों में वर्णित प्रतीकों को समझ नहीं रहे और कथा-कहानियों में लोगों को उलझा रहे हैं।

मैंने शास्त्र नहीं पढ़े, मुझे नहीं पता उनमें क्या लिखा है, ये जानने की मेरी इच्छा ही नहीं है। मैं जब भी कुछ बोलता हूँ, अगर मेरी कही हुई बातें अगर किसी शास्त्र के साथ मैच कर जाती है तो वह अलग बात है। आज तक कितने लोगों ने मुझे कहा है कि सर, आप जो भी बोलते हैं, जो भी सिखाते हैं, हम जाकर उसको देखते हैं तो यह वैसा ही मिलता है। मुझे पता नहीं कि मिल रहा है, मुझे इतना पता है कि जिसने भी उस परमतत्व को जाना, जो भी उस शून्य में चला गया, जो व्यक्ति भी उसे जान जाता है, वह व्यक्ति तो संत बन जाता, अंदर शांत हो जाता है और भीतर से सन्यासी बन जाता, बाहर से नहीं। बाहर तो बहुत सारे संत-सन्यासी घुम ही रहे हैं। बड़ी-बड़ी दाढ़ी बना बढ़ा लेने, गेरुआ वस्त्र पहन लेने, जगह-जगह घूमने से कोई  संत-सन्यासी नहीं बन जाते। मैं इस शरीर रूपी संत-सन्यासी की बात नहीं कर रहा हूँ । असली संत-सन्यासी वह है जो अंदर से पूर्णतः शांत हो चुका है, जन्म-मृत्यु से निकल चुका है, जिसने आत्म-साक्षात्कार कर लिया, आत्म उपलब्धि कर ली और अशरीरी भाव में रहता है, आत्मबोध कर लिया, उसी में जीता है, आत्म भाव में रहता है, शरीर की कोई अनुभूति नहीं है। वह ही असली संत और संन्यास है। 

जिसने भी आज तक आत्म बोध किया है, चाहे वह किसी भी धर्म से हो, जैन धर्म से हो, या सूफिज्म से हो, हिंदुइज्म से हो, या बुद्धिज्म से हो, यहूदी धर्म से हो, कहीं से, किसी भी धर्म से हो, जिसने भी उस परम तत्व को जाना कि उन सबकी वाणी एक ही जगह पर आकर मिल जाती है, मैच करती है, तरीका, पद्धति, शब्द अलग हो सकते है। सारे आत्मज्ञानी जिसने आत्म-साक्षात्कार किया, ब्रह्म को उपलब्ध किया, वे सारे लोग शास्त्रों में नहीं फंसे, न ही फंसते है, वे अपना अनुभव शेयर करते हैं। उनके अनुभव ही शास्त्र है। जिसने आत्मबोध कर लिया, उनके मुख से ही तो शास्त्र निकले है और आज भी निकलते है। उनकी वाणी ही ब्रह्म वाक्य है। 

मैं अपने आप को गुरु नहीं मानता, मैं तो बिल्कुल खाली हूँ, मैं बिल्कुल जीरो हूँ, मैं कोई गुरु नहीं बनना चाहता, गुरु तो परमात्मा है। मुझे कोई शिष्य इकठ्ठे नहीं करने है। हम यहां मेडिटेशन भी करवाते है, तो मेडिटेशन के किसी से पैसा नहीं लेते हैं। हमारे पास जो भी है, देते है, अपना अनुभव शेयर करते है। जिसकी जैसी वृत्ति और स्वभाव है, उसके अनुसार हम ध्यान करवाते हैं।

तो जो भी ज्ञान है, आत्मज्ञानी वे अपने अनुभव को ही ज्यादा शेयर करते हैं और शास्त्रों को नहीं ढ़ोते हैं। अब आप खुद ही सोचिए, जितने भी शास्त्र है, वे शास्त्र कहां से आए, कोई न कोई ऋषि-मुनि ने आत्मबोध किया, ज्ञान को उपलब्ध हुए तब उन्होंने लिखा। इस प्रकार अनेको ने आत्म उपलब्धि किया तो किसी न किसी ने कुछ न कुछ लिखा। इस तरीके से बहुत सारे शास्त्र हो गए। 

मेरे पास, कुछ ऐसे भी लोग भी आते है जो कहते हैकि आप कृष्ण को, विष्णु को नहीं मानते हैं, जबकि कृष्ण और विष्णु ही सब कुछ है। मेरा उन सबको कहना है कि मानने और नही मानने की बात नहीं है। पहली बात तो यह है कि आप अगर मानते हो तो आप फंसे हुए हो, आपने कृष्ण और विष्णु को जाना ही नहीं। आप अपनी कल्पना, इमेजिनेशन में ही फंसे हुए हो। मैं उन लोगों को कहता हूँ कि मैं कृष्ण को जानता हूँ, आप केवल मानते हो, जानते नहीं हो। लोग कृष्ण के भक्त है, लेकिन कृष्ण को नहीं जानते। कृष्ण मतलब आत्मा, जिसे परमात्मा भी कहते है। वह ही सत्य है, वह ही हर जगह व्याप्त है, असीम है, निश्चल है, सर्वव्यापी है। यदि आप आत्म उपलब्धि के लिए, स्वयं को जानने के लिए उस परमात्मा को कृष्ण मानकर, कृष्ण की भक्ति करते है तो आप सही मार्ग पर है और एक दिन अवश्य आत्म-साक्षात्कार होगा। लेकिन यदि आप कृष्ण, विष्णु की कल्पना करोगे कि कृष्ण भगवान हैं, विष्णु है, ब्रह्मलोक में बैठे हैं, तो आप कहानियों में फंस जाओगे, शास्त्र में दिये प्रतीकों को नहीं पकड़ पाओगे और कभी मुक्त नहीं हो पाओगे।

मैं लोगों से कहता हूँ कि आप लोगों ने यह बातें कहाँ से सीखी तो वे कहते है श्रीमद्भागवत से सुना हैं, श्रीमद् भगवत गीता में पढ़ा है। तो मैं उन सबसे पूछता हूँ कि ये सभी शास्त्र, पुराण, उपनिषद किसने लिखा है, मैं सीधे प्रश्न करता हूँ कि किसने लिखा, तो कहते हैं वेद व्यास ने लिखा है, और वेदों की रचना किसने की, वेदव्यास ने की। इसी प्रकार वेदव्यास ने पुराणों की भी रचना की, जिसमें पौराणिक कथाएं होती है, कहानियाँ है, उन्होंने कहानियों के माध्यम से लोगों के चित्त की शुद्धि के लिए यह काम किया। लोग कहानियों से जल्दी समझते है, तो कहानियों के माध्यम से चित्त और वृत्तियों की शुद्धिकरण के लिए शायद वेदव्यास ने पुराण लिखे हों। शायद इसीलिए उन्होंने कहानियों के माध्यम से शास्त्र की रचना की। उस वक्त के लोग पढ़े-लिखे नहीं थे, कहानियों के माध्यम से उनके लिए सीखना शायद आसान था।

आज भी हम देखते है बहुत सारे गांवों में जहाँ लोग पढ़े-लिखें नहीं है, स्त्री-पुरूष पढ़े-लिखे नहीं है, वहाँ पर, उन्हें यदि आप सीधे-सीधे परमात्मा की बात बतायेंगे, आत्म साक्षात्कार की की बात बतायेंगे, ब्रह्म की बात बतायेंगे, तो उनकी बुद्धि नहीं पकड़ेगी। यदि उनको कहानी बतायेंगे, लीला बतायेंगे, तो उनको सुनकर उन्हें बहुत मजा आता है। तो हो सकता उन लीलाओं के माध्यम से, आपको ब्रह्म की उपलब्ध करवा रहे हैं। ब्रह्म मतलब स्वयं को जानने के लिए, जो आप की ही स्थिति है। वेदव्यास ने 6 ब्रह्म पुराण की रचना की, 6 शिव पुराण की रचना की, 6 विष्णु पुराण है। ब्रह्म पुराण में वह ब्रह्मा को कहते हैं कि वही सब कुछ है, शिव पुराण में कहते हैं कि शिव ही सब कुछ है और विष्णु पुराण में कहते हैं वह ही सबकुछ है। मैंने तो हालांकि कभी पढ़ा नहीं, उन्होंने क्या लखा हैं लेकिन मुझे एक साधक ने ही बताया कि मैंने ये सब पढ़े  है, सारे शास्त्र पढे है, मैं बचपन से कृष्ण का भक्त हूँ। अच्छी बात है, आप भक्त है, भक्ति कीजिए। लेकिन मैंने बोला कि अगर वेदव्यास ब्रह्म को जानते थे तो फिर इतने शास्त्रों की रचना करने की क्या जरूरत थी। छः पुराणों में कहा कि ब्रह्मा ही सबकुछ है, छः पुराणों में कहा कि विष्णु ही सबकुछ है और छः पुराणों में कहा कि शिव ही सबकुछ है। ये तो लोगों को भ्रमित कर दिया है उन्होंने। कुछ लोग विष्णु को पकड़े हुए हैं तो कुछ लोग शिव को, तो कुछ लोग ब्रह्मा को और ब्रह्म पुराण अध्ययन कर रहे हैं। कुछ कहानियों में मिलता है कि वेदव्यास खुद ही बाद में कनफ्यूज हो गए थे, तब नारद मुनि ने उनके सलाह दी कि हरि ही मेन है, नारायण सब कुछ है। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत पुराण लिखा जिसमें कृष्ण की लीलाओं की चर्चा की गई है। कृष्ण की लीलाओं की कहानियां लिखी गई है। 

अब बात यह है कि उन्होंने इतने सारे पुराण लिख दिए और उन पुराणों में से आज, कोई शिव पुराण पर, कोई विष्णु पुराण पर चर्चा कर रहे हैं, प्रवचन दे रहे हैं, कहानियां सुना रहे हैं, टीवी पर आ रहे हैं वीडियोज् बन रही है। लेकिन जिसने लिखा उन्होंने स्वयं बाद में कहा कि ये सब गड़बड़ है। जिसने शिव पुराण लिखा, विष्णु पुराण लिखा, उन्होंने कहा कि ये सब छोड़ो, तुम लोग श्रीमद भगवत का अनुसरण करो। तो कुछ लोग श्रीमद भगवत को पकड़े हुए है। अब बात यह है कि श्रीमद् भागवतम् शास्त्र ही क्यों, तो ब्रह्म की उपलब्धि के लिए, बैकुंठ में जाने के लिए। तो बैकुंठ में जाने का मतलब क्या है, बैकुंठ का मतलब है जहां पर कोई कुंठा नहीं है, जहां पर निराशाजनक भावना नहीं है, जहां हताशा नहीं है, जहां पर कोई राग-द्वेष नहीं है, निष्क्रियता, अकर्मण्यता, ये सब नहीं है। कोई द्वंद्ध नहीं है, किसी प्रकार का आंधी-तूफान, नकरात्मक चीजें नहीं है, कोई निरसता, हताशा नहीं है, इन सबको ही कुंठा कहा जाता है। इस प्रकार जहां कुंठा नहीं है वहीं बैकुंठ है। परन्तु आज बहुत सारे लोग कल्पनाओं में फंसे हुए हैं कि जैसे पृथ्वी है, वैसे ही बैकुंठ कोई ग्रह है, जहां पर विष्णु बैठे हुए हैं और उनकी भक्ति से हम बैकुंठ में जाएंगे और विष्णु के दर्शन करेंगे। अगर आप ऐसी ही मानसिकता बनाएं रखेंगे तो आपको कभी भी ब्रह्म की उपलब्धि नहीं होगी। 

आप लोगों से एक बात मैं कहना चाहता हूँ कि आत्मज्ञान को उपलब्ध जीवित गुरु, चाहे दुनिया की किसी भी कोने में हो, वह सारे शास्त्रों का सार होते हैं। इसलिए यदि आपकी प्यास है तो सबसे पहले तो उन्हें ढूंढिए, जीवित गुरु कहां पर है, उनका आशीर्वाद प्राप्त कीजिए, उनके पास जाइए, उन्हें सुनिए। वे ही शास्त्रों का सहित अर्थ समझा सकते हैं। सिर्फ नाचने-गाने से, नहीं होगा कुछ। शास्त्रों का अर्थ भी समझना पड़ेगा और जीवति गुरु आपको निकाल सकते हैं, आप जहां फंसे हुए है। 

भगवद गीता का मैंने अध्ययन किया है, मुझे आत्मबोध होने की घटना होने के बाद में, मैंने होश में अध्ययन किया है। भगवान कृष्ण भी कहते हैं कि तुम जीवित गुरु के पास जाओ, प्रमाणिक गुरू के पास जाओ, वह परमतत्व को जानता है, तुम उसके पास जाओ, समझो, सुनो। वह तुम्हारा बेड़ा पार लगा सकते हैं, वह सही राह दिखा सकते हैं क्योंकि उसने उस परम तत्व को अनुभव किया है इसलिए वह ही शास्त्रों का सही अर्थ जानते हैं। 

शास्त्र तो शब्दों से भरे पड़े है, लोग शास्त्र पढ़कर यह भ्रम में पड़ जाते है कि मैं तो सब कुछ जानता हूँ। शास्त्र में जो लिखा है, सारे श्लोक याद कर चुका हुँ, इसलिए मैं सब कुछ जानता हूँ। इस जानने के जाल में वे फंस जाते है, इस जानने के अंहकार की वृत्ति में वे फंस जाते हैं। ये भी एक वृत्ति ही है कि मैं सबकुछ जानता हूँ। मैं उने सभी लोगों से कहना चाहता हूँ कि शास्त्रों पर आप जो प्रवचन दे रहे हैं, शास्त्रों की सारी बातें जानते हैं, लेकिन क्या आप स्वयं को जानते हैं कि मैं कौन हूँ और इसका बोध किया क्या। क्योंकि जब आप स्वयं को जान लेते है तो शास्त्रों के सारे ज्ञान को ढ़ोने की जरूरत नहीं है। यदि हम शास्त्रों की सारी चीजें जानते है, हम कुरान जानते हैं, बाइबिल जानते हैं, उपनिषद को पढ़ लिए हैं, वेदों का अध्यन कर लिया हैं, सारे पुराणों को पढ़ लिए हैं, अलग- अलग धर्मों की किताबों को, होली बुक्स पढ़ लिए हैं, ये सब पढ़ लिए हैं और इन सबको हमने मस्तिष्क में इकट्ठा भी कर लिए हैं, लोड कर लिया है, लेकिन स्वयं को जानते है कि नहीं। मुख्य बात यही है, स्वयं को जानने में ही मुक्ति है, स्वयं को जानने में ही दुःखों से मुक्ति है। खुद को जानना है कि आप कौन हो, कहां से आए हो। 

आज विज्ञान भी कह रहा है एवरीथिंग इज कनेक्टेड टू ईच अदर। तो आप भी इसी ब्रह्मांड में हो, तो आप किस छोर से आए हैं, आपको अपने उस छोर को पता करना है कि आप किस छोर से आए हो। अपने आप को जानना है। शास्त्रों के अध्ययन से हलचल पैदा होती है, जो अच्छा तो है लेकिन ताउम्र उसमें फंसे रहोगे तो खुद को कैसे जानोगे, शास्त्रों के ज्ञान को भी एक समय छोड़ना पड़ता है, बिल्कुल छोड़ना पड़ता है क्यांकि शास्त्र का एक शब्द भी लेकर तुम वहां नहीं जा सकते हो। किसी भी धर्म के शास्त्र का एक शब्द भी वहां काम नहीं करता है, हर चीज को यहां छोड़ देना पड़ता है, ये सभी माध्यम है, लेकिन पकड़े रहोगे तो मुक्ति से वंचित ही रहोगे। जितनी भी ध्यान की विधियाँ है, छुड़वाने के लिए ही है। 

शास्त्रों के अध्ययन से पहले अपने चित्त की शुद्ध कीजिए, अगर कर रहे हैं तो ठीक है। मैं तो शास्त्रों की केयर ही नहीं करता हूँ कि क्या लिखा है क्या नहीं लिखा है। वह जो परम तत्व है उसके आगे कुछ है ही नहीं। अगर है भी तो शास्त्र उसके अंदर ही है। 

इसलिए मैं अपनी अंतरात्मा से सबको यह कहना चाहता हूँ कि स्वयं को जानिए, उसकी साधना कीजिए, ध्यान कीजिए। हर चीज के सही अर्थ को समझना जरूरी है, वरना जन्मों-जन्मों तक उन्हीं में उलझे रह जाओगे, उनसे ऊपर उठ नहीं पाओगे, मुक्त नहीं हो पाओगे। 

आजकल शास्त्रों को भी लोग जो समझ रहे है वह अपनी बुद्धि के स्तर पर समझ रहे हैं और वैसा ही शास्त्रों का अर्थ निकाल रहे है।

मैंने बहुत सारे ऐसे गुरूओं को देखा है जो समाज में गुरू के रूप में ख्यात है लेकिन भीतर से खुद बंटे है। अलग-अलग धर्मों सम्प्रदायों में बंटे है। खुद को अलग समझते है। हमेशा टी.वी., विडियो में चर्चा में रहते है, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने में लगे है। और इनके पास कुछ काम नहीं है। समाज में कुछ सुधार का काम ही कर लेते तो अच्छा होता। ये सब लोग कहते हैं कि हम धर्म की रक्षा कर रहे है। अरे! परमात्मा ही धर्म है, परमात्मा ने धारण किया है सब कुछ। तो तुम क्या परमात्मा की रक्षा करोगे, तुम धर्म की रक्षा करने चले हो! धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा या तुम धर्म कि रक्षा करोगे! तुम्हें अगर अपने धर्म की रक्षा करनी पड़ रही है तो कहीं न कहीं कमजोरी है। हमें ऐसे गुरुओं के पास जाना ही नहीं चाहिए जो आपको विभाजित करते हैं। 

हमें उनको सुनना चाहिए जिसमें शांति की लहर बह रही है, जिनकी वाणी, जिनके शब्द, जिनकी एनर्जी, हर जाति-धर्म के लोगों को एक करती है। विभाजित से अविभाजित केंद्र पर ला रहा है। सबको जोड़ रहा है, हर जाति-धर्मों को जोड़ रहा है। क्योंकि सब जाति-धर्म के लोग कहते हैं कि परमात्मा एक है, जब परमात्मा एक है तो परमात्मा के नाम पर इतना विभाजन क्यों! 

परमात्मा तो सबके लिए है तो सबको एक करना चाहिए। परमात्मा सर्वव्यापी है, निराकार है, निश्चल है, हर जगह है तो इतने बंटे हुए क्यो! इसीलिए मैं सारे धर्म गुरुओं को भी कहूँगा कि  जब तक आप स्वयं को नहीं जानते हैं तब तक आप सिर्फ धर्म गुरु बनकर रहेंगे, और जिस आप स्वयं को जान जाएंगे, जिस दिन आप ब्रह्म को जान लेंगे, आप ब्रह्म में लीन हो जाएंगे, ब्रह्मभूत हो जाएंगे, उस दिन आपकी वाणी में वह सत्य मुसलाधार बारिश की तरह बरसेगा जो हर जाति- धर्मों के लोगों को एक करेंगे, विभाजित नहीं। 

आध्यात्मिक ज्ञान अशांति फैलाने के लिए नहीं होता, धार्मिक ज्ञान समाज में भेदभाव, नफरत पैदा करने के लिए नहीं होता है। मैं कहता हूँ जहां पर फांकी है वहीं पर अशांति है, जहां पर अंधकार है, वहीं पर खतरा है। इसलिए शास्त्रों को पढ़कर गुरु बन जाना, दूसरों के जीवन को भी खतरे में डालना है। क्योंकि आप खुद उस अमृत तत्व को नहीं जानते हैं, उस निरंजना को नहीं जानते हैं, भेदभाव बंद कर स्वयं को जानने की कोशिश कीजिए। अगर आप नहीं भी जानना चाहते है तो कोई बात नहीं है लेकिन दूसरों का जीवन तो बर्बाद न करें।

मुझसे लोग प्रश्न करते हैं, शास्त्रों के बारे में, मैं कहता हूँ कि मुझे पता नहीं, शास्त्रां में क्या है, कौन क्या है। आप कहोगे कि वह परम शक्ति शिव है, हां ठीक है, शिवा हैं। कृष्ण है, तो ठीक है। है तो एक ही, उसका कोई नाम नहीं है। आप अंदर से बंटे हुए हो, तो बाहर भी सब कुछ बंटा हुआ दिखेगा। 

Leave a Comment

300 characters remaining