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  • स्वयं को सभी दिशाओं में, सर्वव्याप्त महसूस करो, दूर से दूर और समीप से समीप।
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    आज मैं आपको एक ध्यान की विधि बता रहा हूँ। विधि बहुत छोटी है और विधि हमेशा छोटी ही होती है, सूत्र हमेशा छोटा ही होता है लेकिन उपलब्धि हमेशा अनंत होती है। यह सूत्र भी बहुत साधारण है, छोटा सा है। जो लोग खोजी होंगे, वो ही इसको थोड़ा समझ पाएंगे। यह भी विज्ञान भैरव तंत्र से है जिसमें एक सौ बारह ध्यान की विधियाँ बताई गई है। शिव पार्वती को यह ज्ञान बताते है। इस ध्यान विधि में शिव कहते है कि स्वयं को सभी दिशाओं में, सर्वव्याप्त महसूस करो, दूर से दूर और समीप से समीप। बस इतनी सी विधि है। अब आप कहेंगे कि यह भी कोई ध्यान की विधि है। बुद्ध ने कहा की श्वांस पर ध्यान दो। किसी ने कहा तीसरी आंख पर ध्यान दो। कोई किसी चीज पर ध्यान करवाते हैं तो कुछ जचता है लेकिन यह कैसी ध्यान की विधि, शिव ने क्या विधि बता दी कि स्वयं को सभी दिशाओं में सर्व व्याप्त अनुभव करो, महसूस करो, दूर से दूर और समीप से समीप।
    इसे ध्यान से समझना है। परमात्मा की स्थिति तो दूर से दूर है और समीप से समीप है। परमात्मा दूर से भी दूर है, उससे कोई दूर नहीं और समीप से समीप, आपके करीब है। परमात्मा से करीब और कोई नहीं है आपके जीवन में। आपके जीवन में मात्र परमात्मा ही सबसे करीब है। इसलिए यह विधि आसान नहीं है लोगों के लिए। अब कैसे हम अनुभव करें। दूर से दूर, सभी दिशाओं में, सर्वव्याप्त। अनुभव करो पर कैसे महसूस करेंगे लोग?
    इस विधि से ध्यान करने से पहले, इसे समझने के लिए, इसके मनौविज्ञान को समझना पड़ेगा। यह विधि मात्र इतनी ही नहीं है। इसके पीछे एक विज्ञान है। यदि इसको में एक्सप्लेन करने लग जाऊँगा तो मैं घंटां भर इस पर बोलते रह जाऊंगा। जब बोलेंगे, समझेंगे तो उसमें हम घुसेंगे। दरवाजे खुलते चले जाएंगे, खुलते चले जाएंगे। अनुभव बड़ा होता चला जाएगा। इस विधि को सुनने मात्र से सबकुछ शून्य। इसीलिए टीचर और गुरु की जरूरत होती है। 
    शुरू शुरू में साधक इसे महसूस नहीं पाते है। कई साधक नये नये भी होते है अर्थात् जिन्होंने ध्यान का अभ्यास अभी ही शुरू किया है। कोई चार-पांच साल से तो कोई दस-पन्द्रह साल से ही प्रैक्टिस कर रहे है लेकिन अभी तक उन्होंने कुछ भी अनुभव नहीं किया है  और उनको यदि मैं यह कहूं कि स्वयं को सभी दिशाओं में सर्व व्याप्त अनुभव करो, महसूस करो, दूर से दूर और समीप से समीप तो वे कैसे कर पायेंगे, कैसे महसूस कर पायेंगे। जीवन भर उन्होंने अपने आप को एक संकीर्ण बनाकर रखा है। संकीर्ण यानी की छोटा बनाकर रखा है, और चेतना लेवल पर वह संकीर्णता को प्राप्त है, शुद्रता को प्राप्त है। दिखने में इतना छोटा सा मानव लेकिन भीतर से विचारों से भरा पड़ा है, विचारों में बंधा हुआ है। भीतर उसकी मानसिकता ऑलरेडी ऐसी ही बन चुकी है क्योंकि वह जंजीरों में बंधा हुआ है, जैसे किसी को आपने जैल में बंद कर दिया हो। अब उसको तुम कहते हो कि स्वयं को सभी दिशाओं में सर्व व्याप्त अनुभव करो, महसूस करो। कैसे करेगा वह? बंधन खोलिए, तभी तो मैं आजाद घूमूंगा-फिरूंगा। अभी तो आपने बंद कर दिया है। 
    इसी प्रकार से अगर किसी ने अपने आपको अपनी मानसिकताओं की जंजीरों में संकीर्ण करके रखा है, बेड़ियों में बांध करके रखा है तो वह महसूस नहीं कर पाएगा और जिंदगी भर, स्कूल, कॉलेज, सोसाइटी, समाज ने उसे यही तो सिखाया है कि तुम यह हो, तुम यह हो। उसे कभी यह सिखाया नहीं कि तुम विराट हो, तुम अनंत हो, तुम ऐसा अनुभव कर सकते हो। अगर बचपन से कोई सिखाया होता तो उसका मानसिकता यह बनी होती कि मैं विराट हूँ, तो वह कोशिश करता। अभी तक तो उनकी कोशिशों के पंख ही काट दिये गये है। जिन्दगी भर उसको क्या सिखाया जाता है? सुरक्षा, सुरक्षा के भाव में, सिक्योरिटी के भाव में जीना। बचपन से हमे क्या सिखाया जाता है कि अच्छे से पढ़ाई कर, अच्छे से मार्क्स ला। सिक्योरिटी चाहिए, लाईफ की सिक्योरिटी चाहिए, पैसा चाहिए, नौकरी चाहिए तो अच्छी पढ़ाई कर। कोई बिजनेस कर रहा है तो उसमें भी उसको चाहिए। सुरक्षा का भाव भर दिया गया है और जो लोग सुरक्षा के भाव में जीते है, वे संकीर्णता में जीते है, वे संकीर्णता को प्राप्त हो जाते हैं। सीमित हो गए है अंदर से, क्यों? जो मैंने अभी कहा कि आपको किसी ने जेल में बंद कर दिया है, चाहरदिवारी के अंदर आप तो बंद हो गए हो। आपको कहा जाता है कि आजादी से भागो, कैसे दौड़ सकते हैं? 
    इसी प्रकार से, ये सुरक्षा की भावना ही आपकी बेड़िया है। आपको उस परम चेतना में विश्वास नहीं है। आप आजाद कभी नहीं हो सकते हैं जब तक किसी भी साधक के अंदर सुरक्षा का भाव है तो वह संकीर्णता को प्राप्त है, शुद्रता को प्राप्त है। उसने अपने आपको सीमित कर दिया है। इसीलिए जब वह यह सुनता है कि दूर से दूर और समीप से समीप तो कहता है कि यह कैसे संभव कि परमात्मा दूर से दूर और समीप से समीप। हम उसे सर्वत्र सर्वव्याप्त कैसे अनुभव कर सकते है। उसको सुरक्षा की भावना की बेड़िया ने ही तो रोक कर रखा हुआ है।
    इस सुरक्षा के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते हैं। जब कोई राजा बनता है तो अपनी राज्य की चाहर दिवारी बनाता है, अपना पैलेस बनाता है, पहरेदार रखता है कि कोई उस पर आक्रमण ना कर दे। उसके लिए डिफेंडर को रख देता है, फिट कर देता है, क्यो? क्योंकि उसमें सुरक्षा की भावना है, वह सुरक्षित होना चाहता है। कोई बड़ा बिजनेसमैन बन जाता है तो अपना बिजनेस, अपनी बिल्डिंग, अपना नाम, अपनी धन-दौलत सब मेंटेन करना चाहता है, क्यों? क्योकि उसके अंदर सुरक्षा की भावना है। 
    कोई भी किसी भी पद, प्रतिष्ठा को प्राप्त हो गया हो लेकिन यदि जब तक उसके अंदर सुरक्षा की भावना है तब तक वह बेड़ियों में बंधा है, वह सीमित है। मस्त मौला वही है जिसके अंदर अब कोई सुरक्षा की भावना नहीं है, अब सीमाएं टूट गई है उसके लिए। अब वह राजा है, जहाँ मन वहाँ निकल कर दौड़ पड़ेगा। अब उसे डिफेंडर्स नहीं चाहिए। अब पूरे आकाश की भांति खुला हो गया है अंदर से। अब अपने आप को वह कहीं भी विलीन कर लेगा। एक पक्षी की भांति आकाश में जितनी ऊंचाई पर उड़ना चाहे, उड़ सकता है क्योंकि उसने सुरक्षा की भावना, बेड़ियों को तोड़ दिया है उसने।
    यह विधि उनके लिए है जो जीवन भर सुरक्षा-सुरक्षा के लिए जीते है। इसी विधि से आप अपनी असुरक्षा की भावना को तोड़ सकते हो। और जब आप असुरक्षा की भावना को तोड़ेंगे तो धीरे-धीरे आप देखेंगे कि आप मिट रहे हैं, असीमित हो रहे हैं। अपने सारे बंधनों को, बेड़ियों को, दीवारों को, लकीरों को तोड़ते हुए, समग्रता के साथ फैलते जा रहे हैं; जैसे ब्रह्मांड। क्यों, क्योंकि फैलना हमारा स्वभाव है और संकीर्णता को प्राप्त हो जाना मानसिक रोग है। सब फैलना चाहते हैं, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, कहीं भी किसी भी तरह से वे फैलना चाहते है। मेरा विशाल रूप हो, मेरी कम्पनी विशाल हो, मैं विशाल होऊं। मेरी फोटो हर जगह निकले। मेरी इमेज हर जगह फैले। लेकिन आप अगर एक सुरक्षा की भावना में, अपने आप को बांधकर फैलना चाहते है, तो यह कैसे हो सकता है। अपने आपको जेल में बंद करके नहीं फैल सकते। किसी प्रकार की सुरक्षा की भावना को पाले नहीं रखना है। प्रकृति में सभी सुरक्षित है, आपको सुरक्षा की परवाह नहीं करनी है। सुरक्षा की भावना रखना अर्थात् परमात्मा में अविश्वास की भावना रखना। मनुष्य के अलावा कौनसा प्राणी इस पृथ्वी पर सुरक्षा की भावना से ग्रसित है! 
    इसलिए इस विधि को वही कर सकता है जब वह अपने अंदर की सुरक्षा बेड़ियों को, दीवारों को, जंजीरों को इसी वक्त से उखाड़ कर फेंकना स्टार्ट कर दे, उसे अपने अंदर खत्म कर दे। जला दे अपने अंदर, सुरक्षा की भावना को। तब वह देख पायेगा और दूर से दूर एवं समीप से समीप का अनुभव कर पायेगा। धीरे-धीरे अचानक से एक दिन वह दिन भी आएगा जब उसमें किंचित मात्र भी कोई भी सुरक्षा की भावना नहीं रहेगी और वह संपूर्णता को प्राप्त कर संपूर्ण हो जाएगा, पूर्ण हो जाएगा।
    आजकल हर घर में यह देखा जा सकता है, हर घर में हमेशा यही ट्रेनिंग दी जा रही है कि सुरक्षित कैसे रहना है, पैसों से, नौकरी से, नाम फेम से, हर चीजों से तो ऐसे लोगों के लिए यह अध्यात्म नहीं है और अगर आना चाहते हैं तो अपने अंदर सुरक्षा की भावना को खत्म करें। फिर वे भीतर से बन जायेंगे राजा, इस ब्रह्माण्ड के और वे बन जायेंगे।
    जब कोई एक लड़का, एक लड़की प्रेम में पड़ता है तो प्रेम के साथ ही साथ एक सुरक्षा की भावना भी आ जाती है। यह सुरक्षा की भावना कहां से उत्पन्न होती है, भय से उत्पन्न होती है। किसी चीज को लेकर, उसे खोने का डर है तो आपके अंदर  भय उत्पन्न होगा और यही भय असुरक्षा की भावना उत्पन्न करेगा। तो जैसे ही एक लड़का, एक लड़की प्रेम में पड़ते हैं तो उसके अंदर उसको खोने का भय भी उत्पन्न हो जाता है कि मैं जिन्दगी में उसे कहीं खो ना दूं। कहीं मुझे वह छोड़ कर ना चली जाएं, चला जाएं। कहीं किसी और के प्रेम में ना पड़ जाए। किसी के साथ वह बात भी करेगा या करेगी, हंसेगा या हंसेगी तो भी उसको बुरा लगेगा; क्योंकि प्रेम के साथ-साथ एक भय भी आ जाता है और भय के साथ-साथ सुरक्षा की भावना भी आ जाती है। इस प्रकार वे फंस जाते है तो आजादी कैसे मिलेगी उनको। अब क्या करेंगे फिर? कैसे निकलेंगे यहां से? इसमें तो लिबरेशन नहीं दिख रही है।
    अगर वे अंदर ही अंदर, इस केंद्र पर पहुंच जाए कि मेरी प्रेमिका, मेरा प्रेमी कल किसी के साथ चली जाए, चला जाएं तो भी मुझे कुछ भी फर्क नहीं पड़ने वाला है। मुझे ना तो उससे कुछ पाना है और ना ही कुछ देना है। यदि उसके अंदर यह भावना है तो वह आजाद है। अगर मेरे अंदर कोई बंधन होगा तो मैं भी सामने वाले को बंधन में डालने की कोशिश करूँगा। अगर मेरे अंद कोई बंधन नहीं होगा तो मैं कोई भी शर्त और बंधन सामने वाले पर नहीं डालूँगा। पूर्ण रूप से भीतर से, वह आजादी देकर रखी है और भीतर निरन्तर चेक करें कि कल चले भी जाए, कुछ हो भी जाए तो मैं वैसे के वैसे ही रहूँगा। ऐसा साधक इस यात्रा में मंजिल पाल लेता है। यह भीतर की बात है, बाहर की नहीं। खुद अंदर चेक करना है, नहीं तो वह अटक जायेगा फिर। चाहे आप अपनी मम्मी, पापा, अपने बेटा-बेटी किसी के भी प्रेम में ही क्यों न हो, अटक जायेंगे। 
    यह विधि कह रही है कि सभी दिशाओं में, स्वयं को महसूस करो, दूर से दूर, समीप से समीप। लेकिन इसे महसूस कैसे करें? करने के लिए किसी ने सिखाया नहीं है हमें आज तक। हमें तो संकीर्ण, सीमित होने के लिए हमेशा सिखाया गया है। हमें तो बस यही सिखाया गया है कि धन-शौहरत कमा लो, एक अच्छा व्यक्ति बन जाओ और समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति बन जाओ। यही तो सिखाया गया है ना। यह संकीर्णता है, सिकुड़ गये हो, फैलाव हुआ ही नहीं है। फैलना तो चाहते थे, पैदा तो हुए थे उड़ने के लिए। लेकिन शुरू से पंख काट दिये गये।
    जब हम सुरक्षित की बात करते हैं तो मैं तो देखता हूँ कि जो जेल में बंद है उससे ज्यादा कोई तो कोई सुरक्षित है ही नहीं। आप सोच कर देखिए! क्योंकि जेल में जो व्यक्ति बंद है, उसको आप मार नहीं सकते हैं, जेल में जो व्यक्ति बंद है, उसकी हत्या करना आपके लिए मुश्किल है। वह सबसे सुरक्षित है। उसको जान का वहाँ कोई खतरा महसूस नहीं हो रहा है। यदि कोई ऑफिसर है, कोई बड़ा बिजनेसमैन है, कोई राजनीतिज्ञ है, अपराधी भी क्यों न हो, तो बाहर में उनको जान का खतरा महसूस है। बाहर वे असुरक्षित हैं; क्योंकि बाहर उनको कोई भी मार सकता है, कभी भी कुछ भी हो सकता है, इसीलिए तो इतने बड़े-बड़े मिनिस्टर बिजनेसमैन, सेलिब्रिटी आगे पीछे गार्ड लेकर चलते हैं, क्यों? खतरा है ना उनको, असुरक्षित है वे। सुरक्षित होते तो इतनी सुरक्षा लेकर चलने की जरूरत ही नहीं थी। 
    इस प्रकार जो जेल में बंद है, वे सबसे ज्यादा सुरक्षित है, लेकिन लोगों को क्या लग रहा है कि सुरक्षित होने के लिए, यदि हम इन ऊंचाइयों को छुयेंगे, तो हम सुरक्षित हो जाएंगे। जबकि हकीकत यह है कि आप चाहे कोई भी ऊंचाई को छू ले, आप असुरक्षित ही रहेंगे। आपसे बेहतर सुरक्षित तो जेल में बंद व्यक्ति है। अगर आप खुद ऑब्जर्व करेंगे, ध्यान देंगे तो आप समझ सकते हैं। मैं तो आंतरिक दुनिया, इनर वर्ल्ड की बातें कर रहा हूँ। अपने भीतर आपको देखना है, समझना है, ध्यान देना है।
    मन के आधार को खत्म कर देना है। मन को जिंदा रहने के लिए कोई आधार चाहिए,  कोई एक विषय चाहिए। यदि आपने उसके सारे आधार को ही खत्म कर दिया तो निआर्धार हो गये। निर आधार की अवस्था ही तो शिव की अवस्था है। तो सुरक्षा के भाव यानी कि नौकरी, पद, प्रतिष्ठा अगर दिल आपके दिल में है, आपको इनकी आसिक्त है तो मन को एक सब्जेक्ट मिल गया। उसको आधार मिल गया है, वह अहंकार युक्त हो गया है। 
    अतः मन को कोई आधार नहीं देना है। निरन्तर मन को देखते रहना है, भीतर देखते रहना है कि यह किसी आसक्ति में तो नहीं डूबा है, आश्रित है क्या? निराश्रित खुद को ही ढूंढना है। इसमें आंख बंद कर ध्यान में बैठने की जरूरत नहीं है। यह सिर्फ ज्ञान की बात है, विवेक की बात है, खोज की बात है। मैं अंदर झांक रहा हूँ, देखना है कि मेरा मन किस चीज पर आश्रित है। उसको निराश्रित कर दे। किस चीज पर वह आधारित है? कुछ तो होगा, अंदर से, उसको ढूंढना है और जैसे ही पकड़ा तो वह खत्म हा जायेगा। 
    हमें सोचना होगा, मनन करना होगा कि मेरे यहाँ रहने का उद्देश्य क्या है? उठने का, भागने का, दौड़ने का, खेलने का, मौज मस्ती करने की वजह क्या है? मन को कहाँ से मोटिवेशन एंड इंस्पिरेशन मिल रहा है, उसको अंदर  ढूंढना है। मन को कोई एक सब्जेक्ट मिला है, उसी सब्जेक्ट पर वह चिंतन-मनन करता है। अगर आपने उस आश्रय को, उस आधार को, जिस पर वह टिक गया है, खत्म कर देंगे, उसे निराश्रित, निराधार कर देंगे तो मन खत्म हो जाएगा, विलीन हो जायेगा। तब आप निराधार, निराश्रित की अवस्था में आ गए। मन जो विलीन हो गया तो संपूर्ण आपका आश्रय मिल गया। 
    इसी को तो श्रीमद् भागवत में, श्रीमान शंकरदेव, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, वल्भाचार्य, निम्बाकार्च भक्ति आंदोलन का यही तो सार है। श्रीमद् भागवत में दसवां जो पॉइण्ट है, वह यही तो कहता है कि कृष्ण की ट्रासिजेण्टल नेचर को प्राप्त हो जाता है। अंत में उसका ही आश्रय मिल जाता है। अंत में, आश्रय में पहुंच गया, उस निराकार में समा गया, खत्म हो गया, आप शून्य में पहुंच गए, महाशून्य में, शिव को प्राप्त कर लिए और आप हर चीज के साथ हो गए। अब मन का कोई आधार नहीं रहा। मन विलीन हो गया, खत्म हो गया। 
    तो निरंतर अंदर ध्यान रखना है कि मेरा मन का आधार क्या है, विषय क्या है। मन को जिंदा रहने के लिए, उसे कोई न कोई एक विषय चाहिए ही चाहिए। अभी उसका कौनसा विषय है, इसे अंदर ही अंदर चेक करते रहना है और यह चेक करके उस आधार को मिटा देना है। तब अंदर असली प्रेम पहली बार घटेगा, धर्म घटेगा, असली धर्म, सत्य धर्म। अब आप किसी के साथ रिश्ते में भी होंगे, तो पूरी आजादी के साथ होंगे। ना आपके अंदर कोई बंधन है और ना ही सामने वाले को आप बंधन में बांधना चाहते हैं। जब आप उसको बांधना नहीं चाहेंगे तो वह भी समग्र रूप से आपके साथ एक यूनियन होगा या होगी। क्योंकि बंधन किसी को पसंद नहीं है। बच्चे भी बंधन पसंद नहीं करते हैं कि उसके मां-बाप हमेशा उसको रेस्ट्रिक्ट करें, हर चीजों में। 
    किसी को बंधन पंसद नहीं है, सब आजाद होना चाहते है। जब आप आजाद होते है तो आपके साथ जो लोग जुड़ते हैं, आप भी उनको किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं रखते हैं। तब बात बनती है। तब कोई एक साथी, जीवन का रस, प्रेम का रस, आत्मा का आनंद, अमृत भाव में जीवन जीता है। 
लेकिन दुनिया अभी विपरीत दिशा में, सुरक्षा के भाव में जीना चाहते है। शिव कहते हैं कि तुमने अपने अंदर सुरक्षा की भावनाओं का जो महल बनाया है, अब समय आ गया है, उन महलों को, एक-एक करके, एक-एक करके तोड़ दो। वेनिस कर दो, डिस्ट्रॉय कर दो, तब होगी घर वापसी, संबोधि की प्राप्ति। कम इन ट्रू द नेचर ऑफ डी एक्जिस्टेंस। 

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