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  • अब पागलों की तरह भटकरना बंद करो
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        मुक्त तो हो ही आप सब लोग, लेकिन मन जो है वहां तक पहुंच नहीं पा रहा है अंदर, सब के सब लोग ईश्वर ही हो। ईश्वर है सबके अंदर। हर वक्त है, हर क्षण है। मन ही भ्रम में पड़ा हुआ है, मन ही वहां तक पहुंच नहीं पा रहा है। मेडिटेशन और सारी स्पिरिचुअल प्रैक्टिस का मकसद होता है कि मन को कैसे हम कंट्रोल करें, ट्रेनिंग दे, या मन को कैसे हम ट्रांसेंड कर दे, ऊँचा उठा दें, मन के ऊपर कैसे चले जाए, मन की मृत्यु कैसे कर दें, सभी इसकी ही ट्रेनिंग होती है। ज्ञान को उपलब्ध होना बहुत जरूरी है। तो यह बात आप स्पष्टतः समझना है कि कोई विषय चाहिए। अब विषय क्या-क्या देते हैं। हमारे भारत में प्रायः सभी स्पिरिचुअल और रिलिजियज टाइप के होते है। वैष्णवईज्म में जाओगे तो उनको विषय क्या देते है-कृष्ण की मूर्ति या विष्णु की मूर्ति देते हैं। कृष्ण के बारे में सोचों, विष्णु के बारे में सोचो। ये केवल सिंबल है। कृष्ण की फोटो, विष्णु की फोटो केवल प्रतीक है। मन को कहां लगा दिया- विष्णु की आराधना करो, कृष्ण की आराधना करो। उनकी अराधना करते-करते, करते-करते एक दिन क्या होगा कि आराधना के उस छोर तक चले जाओगे जो भागवत के अंतिम चैप्टर में लिखा है, सुखदेव राजा परीक्षित को कह रहे है कि वह ब्रह्म तुम्ही हो, वह ईश्वर तुम्ही हो। कृष्ण की जो ट्रांसकेंडेंटल नेचर पारलौकिक प्रकृति जो है वह और कोई नहीं है, तुम ही हो। उस श्रीहरि की आराधना करो। फिर बोल रहे है कि वह तुम ही हो। मुश्किल हो जाता है जब अचानक से कोई बोल दे कि वह तुम ही हो। अरे, अगर मैं हूँ तो मेरी अवस्था इतनी बुरी क्यों है। ऐसा हो जाता है।

        शैवइज्जम में अगर जाएं तो शिवा के फॉलोअर्स होंगे। वे शिव को ही परम तत्व कहते है। शिव ही उस परम तत्व की अभिव्यक्ति हैं। उनकी विचारधारा में मन को शिव की अराधना में लगा दिया गया। शिव का जो भी विज्ञान दिया दिया गया है, उस विज्ञान के माध्यम से, वहां तक पहुंचने में लगा दी गई है। शक्तिइज्म, वैष्णवइज्म, शैवइज्म, अद्वैतइज्म चार भागों में विभक्त है, अभी वर्तमान स्थिति और भी कुछ निकल गए है। शक्तिइज्म दुर्गा के उपासक वाले, उनकी मूर्ति दुर्गा, यह सब सिंबल है। स्टेच्यू के पीछे ज्ञान को दर्शाया जाता है। लोग भूल गए हैं और स्टैच्यू जैसे ही देवी-देवता को ढूंढते हैं। काली मुझे वैसे ही मिले, शिव-कृष्ण वैसे ही कहीं है, और उसी रूप में मुझे मिल जायेंगे यदि हम उनकी पूजा करेंगे। ऐसा कुछ नहीं है। असली ज्ञान को समझना है, उसके पीछे के रहस्य को समझना है। आपके चित्त के निरोध के लिए ये सब माध्यम बनाये गये है। निरुद्ध होंगे तभी आप ध्यान में लग जाएंगे। सब दो ही चीजें है-द्वैत और अद्वैत। यह द्वैत का मार्ग है। द्वैत के माध्यम से हम अद्वैत में छलांग लगा सकते हैं। इसलिए समझा रहा हूँ कि मैं आप लोगों की वृत्ति को जानता हूँ कि आप लोग किस वृत्ति से आए हो। आप शक्तिइज्म से आएं हो, वैष्णवइज्म से आए हो, शैवइज्म से आए हो। आसाम के 90 प्रतिशत लोग कृष्ण के फॉलोवर्स है, जो वैष्णवइज्म में आते हैं। उनकी बुद्धि कृष्ण की इमेज में इतनी अटक गई है कि वे उससे आगे निकली नहीं पाते हैं। इसलिए दुर्गति हो रही है सब जगह। शंकरदेव के फॉलोवर्स की दुर्गति हो रही है, सब मांस खा-खा कर भ्रष्ट कर रहे हैं सब। सभी अपने अंदर ही, अपने संघ के अंदर ही, सभी विभक्त है। सत्य से दूर है, उनकी बातों में, किताबों में। शंकरदेव तो आए और फिर चले गए। जब तक थे, जब तक तो ठीक ही था, उनके बाद उनके फॉलोवर्स सत्य से दूर चले गए है, बहुत दूर निकल चुके हैं। शंकरदेव ने जो सिखया उस पर तो नहीं चल रहे है। असल में वे समझ ही नहीं पाए तो क्या सिखेंगे। वे तो अपनी बुद्धि से समझते हैं, वे तो अपनी बुद्धि में ही विभक्त है। सब एक दूसरे को काटने में लगे है और खुद को सही साबित करने में लगे है। कोई कहेंगे कि नहीं, शिवा कुछ ओर है, विष्णु ही मुख्य है। तो कोई कुछ ओर कहेंगे। इसी प्रकार कोई दुर्गा की उपासना करते है, चित्त को निरोध करने के लिए। इसका कोई अंत नहीं है। इस पर ज्यादा नहीं बोलूंगा। पहले समझ लें कि ध्यान का असली विज्ञान क्या है। जैसे दुर्गा की कोई उपासना करता है, तो उसके पीछे विज्ञान है, उसे पता नहीं है कि यह चित्त का निरोध करने के लिए है। इसका अंतिम उद्देश्य ब्रह्म की प्राप्ति ही है। इसी प्रकार अद्वेतइज्म में ज्ञान का मार्ग है, ज्ञान से चित्त का निरोध कर ब्रह्म की प्राप्ति की जाती है। शंकराचार्य ने यह मार्ग बताया कि समझते जाओ। समझते-समझते एक दिन उस तक पहुँच जाओगे। तूम एक अद्वेत, एक परम ईश्वर, जिसे हम प्रत्येक में आत्मा कहते है, आत्मा एक है, उसको आत्मा को, परमात्मा का बोध करना, पाना है। हम सब एक है-अद्वेतइज्म में, एक के सिवाय और कुछ नहीं है। दो होने में खतरा है,एक होने में तो कोई खतरा नहीं है ना है। 

        आप अगर अकेले हो तो कोई खतरा नहीं, दो होने में हमेशा खतरा है, जैसे आपका अगर कोई दोस्त है, तो उससे भी कभी खतरा महसूस हो सकता है, पता नहीं कौन, कब दुश्मन बन जाए। दुश्मन से तो आप हमेशा सावधान रहते हो लेकिन आप अपने दोस्त से सावधान नहीं रहते हो। मैं कहूँ कि आपको अपने दोस्तों से सावधान होना चाहिए, आपका दोस्त कब आपको आघात पहुंचा सकता हैं, आपको पता नहीं है। क्योंकि आपके करीब रहते हैं। और आपके दोस्त कब दुश्मन बन जाएंगे, यह आपको पता नहीं है। संसार में कोई अपना पराया नहीं है। दोस्त कभी भी दुश्मन बन सकता है और दुश्मन दोस्त बन सकता है। इसलिए कभी भी किसी चीज को पकड़ कर नहीं बैठे कि दोस्त है, और यह मेरी जिंदगी में हमेशा ही रहेगा। 

        जीवन में हमेशा शंकाओं और भ्रमित विचारों से और कल्पनाओं से दूर ही रहना। ये सब आसक्ति ही है। आप किसी भी माध्यम से वहां तक पहुंच सकते हो। गौतम बुद्ध आए, उन्होंने कहा कि ये देवी-देवता, पूजा-पाठ, सब बंद करो। तो फिर क्या करो, बस ध्यान करो। उन्होंने देखा कि लाखों सालों से पूजा-पाठ करते हुए भी लोग भटक गए हैं, जो परम सत्य की उपलब्धि होनी चाहिए वह तो मिल ही नहीं रही है। तो उन्होंने कहा कि ध्यान करो। उन्होंने ध्यान का मार्ग बताया। उन्होंने आनापान की विधि दी, अपने श्वांस पर ध्यान दो। यह श्वांस की विधि विज्ञान भैरव तंत्र में शिव की दी हुई 112 विधियों में प्रथम विधि है। ऐसा नहीं कि बुद्ध ने ही दी। विधि और हर चीज यहां पर पहले से ही है। ब्रह्माण्ड में हर चीज पहले से ही है। अब इसके विज्ञान को भी देखों। गौतम बुद्ध ने कहा पर ध्यान करने को कहा, श्वांस पर। अब मन को कहीं न कहीं किसी एक विषय पर लगाना पड़ेगा ना। अब बुद्ध ने कौन से विषय में लगाया, श्वांस पर लगा दिया। 

        वैष्णवईज्म में कहां पर लगाया था, कृष्ण के विषय पर लगाया था। शिवाईज्म में कहां पर लगाया था, शिव के विषय पर लगाया था। शाक्तिईज्म में कहां पर लगाया था, दृर्गा के विषय पर लगाया था। ज्ञान के मार्ग में ज्ञान के विषय पर लगाया था। बुद्ध के मार्ग में हमने क्या किया, मन को मारने के लिए श्वांस के आवागमन पर लगा दिया, जिसे वे आनापनसति कहते है। आनापानसति यानी कि आती-जाती श्वांस को सजगता से देखना। हर एक श्वांस जो आ रही है, जा रही है, बस उसे तुम देखते रहो। अब श्वांस ही क्यो, क्योंकि बाकि चीजें तो बाहर से सीखनी पड़ती है लेकिन श्वांस तो सभी माँ की पेट से, पैदाईशी से सभी लेकर आते है। इसलिए यह विधि हम्हारे सबसे करीब है। सीखने की कुछ भी जरूरत नहीं है, श्वांस को केवल देखना भर है लेकिन सजगता से। 

        इस प्रकार, ध्यान का मूल रहस्य है, मन के ऊपर चले जाना। लेकिन मन के ऊपर जाने के लिए मन को एक विषय चाहिए, जिस पर वह ध्यान करें। वह विषय चाहे कुछ भी हो सकता है। हम इसे कुछ भी विषय दे सकते हैं। हम मन को थर्ड आई पर लगा सकते है कि तुम थर्ड आई पर ध्यान करो या अपने श्वांस पर मन को लगा सकते हैं या हमारे अंदर जो सात चक्र है, मूलाधार से लेकिन सहस्त्रार हर चक्र पर ध्यान करो। नहीं तो अपने पूरे शरीर की संवेदनाओं पर ध्यान करों या शरीर के किसी भी एक अंग पर ध्यान करो। तो भी तूम उपलब्ध हो जाओगे। और कुछ नहीं तो नाभि पर ध्यान करो, जैन गुरु नाभि पर ध्यान करवाते हैं। नाभि पर ध्यान करो तो भी तूम उपलब्ध हो जाओगे। 

        विज्ञान भैरव तंत्र में शिव की दी हुई 112 विधियों में से 9 विधियां श्वांस से संबंधित है। इसके अलावा भक्ति मार्ग भी है, ज्ञान मार्ग भी है, कर्म मार्ग है, अनेक मार्ग है लेकिन ये सभी मार्ग ही है मंजिल नहीं है। भक्ति मार्ग पर चल रहे हो, जिस दिन मार्ग समाप्त हो गया तो सिर्फ क्या बच जाएगा, भक्ति। असली भक्ति कब होती है, जब मार्ग समाप्त हो जाता है। मार्ग पर चल रहे थे, मार्ग समाप्त हो गया, अब क्या बच जाता है सिर्फ भक्ति रह जाती है। तो ज्ञान मार्ग से जाएं, ध्यान मार्ग से जाएं, कर्म मार्ग से जाएं, भक्ति मार्ग से जाएं, सभी में मार्ग एक दिन समाप्त हो जाता है, और केवल वो ही बच जाता है। कर्म करते हुए अकर्म की स्थिति में पहुँच जाते है। ध्यान का मुख्य मकसद यही है।

        अब बात यह है कि आप लोगों में से प्रत्येक का स्वभाव भिन्न है, आपका स्वभाव क्या है, आपका कृष्ण के प्रति अटैचमेंट है तो आप कृष्ण के बताए मार्ग पर चल सकते है। शिव भक्त हो तो शिव के बताए हुए मार्ग पर चल सकते हो। यदि आप विज्ञान पर ज्यादा विश्वास करते हो तो आप इन्वेस्टिगेट करके चीजों को समझते हो, तो ज्ञान मार्ग पर चलो। जहां चीजों को वैज्ञानिक रूप से समझ कर ज्ञान के माध्यम से आप पहुँ सकते हो। लेकिन पहुंचेगे सभी एक ही जगह। एक ही जगह आप सब पहुंचेंगे। इसीलिए हम किसी भी मार्ग को गलत नहीं कहेंगे। मार्ग को समझना है, और अपने स्वभाव, अपने चित्त के अनुसार, उसी मार्ग पर ध्यान करना है।

        हमारे यहां ध्यान से पहले प्राणिक व्यायाम करवाते है। हमारे जो प्राण है, हम जो सांस लेते हैं, प्राण और हमारा मन एक दूसरे से कनेक्टेड होता है, प्राण को जैसे ही हम कंट्रोल करते हैं, नियंत्रण करते हैं तो मन भी नियंत्रित हो जाता है। अन्यथा आप मन पर नियंत्रण कर दो तो प्राण आपका नियंत्रित हो जाता है। आपने कभी देखा होगा कि आपको कभी बहुत ज्यादा गुस्सा आता है तो श्वांस भी तेज हो जाता है और जिसका  श्वांस तेज हो गया, उसका मन भी बहुत चंचल हो जाता है। इसलिए ध्यान में स्थिर, शांत चित्त होकर बैठना पड़ता है। जो इंसान हिलता-डुलता ज्यादा है, एक ही पोस्चर में अधिक समय नहीं बैठ सकता तो ध्यान से पहले उसे बैठने की आदत डालनी होगी।

        तो पहली बात यह है कि आपने अभी तक एक अच्छे पोस्चर में बैठने की ही आदत नहीं डाली है, अच्छी ज्योमेट्री में बैठ ही नहीं सकते हो, दर्द उठता है, शरीर भारी पड़ गया है। ध्यान तो बहुत दूर की बात है, शरीर में ही बहुत दुःख है, इससे ही छुटकारा नहीं मिल रहा है, सर क्या ध्यान करें। तो इसलिए कहते है पहले तो शरीर की बिमारी ठीक करो। इसलिए ध्यान से पहले, योग और प्राणायाम करवाते है, भोजन पर ध्यान देते है। वात, पित्त और कफ को सुधारते है और योग की अवस्था में आते है फिर ध्यान हो सकता है। इसीलिए हम ध्यान से पहले प्राणिक एक्सरसाइज करवाते है ताकि बेसिक ट्रेनिंग मिलें। शरीर स्वस्थ होगा तो मन स्वस्थ होगा। तब ध्यान में उतरा जाता है, अचानक से  ध्यान नहीं लगाया जाता है। 

        कई लोग ध्यान का मन बनाते है, आते है, बैठते है, लेकिन एक-दो दिन बाद भाग भी जाते है, क्यांकि आए थे वे आनंद प्राप्त करने के लिए और लगातर बैठे तो शरीर से मिला दर्द। एक ही पोज में लगातर बैठने की आदत नहीं है ना। इसलिए कहते है कि कहां मै ध्यान में जाऊँगा, यहां तो परम शांति और आनंद की जगह दर्द ही मिलता है और मन तो आनंद चाहता है, दर्द मिलता है तो वह वहां से दूर भागता है।

        हमारा मन कुत्ते जैसा है। जिस गली में उसको कुछ खाने के लिए मिलते रहेगा, प्लेजर मिलता रहेगा, तो वहां वह आता-जाता रहेगा। यदि उसे कभी वहां खाने का ना मिलें, उल्टा कोई उसके पीछे डण्डा लेकर दौड़ें तो वह क्या करेगा, बचने के लिए जितना तेज हो सके, दुम दबाकर भागेगा। उस गली में वह फिर नहीं आता है। जबकि उसे अभी डण्डा लगा नहीं, बिना लगे ही उसे दर्द मिला। इसी तरह शुरू-शुरू में ध्यान के लिए बैठते है तो हमारे साथ होता है। बहुत सारे लोग आते है ध्यान के मार्ग में कि एक दो दिन में परम की उपलब्धि हो जाएगी। उपलब्धि इतनी जल्दी थोड़े ही मिलती है, जन्मों-जन्मांतर तक बहुत तपस्या करनी पड़ती है। हां, पहले से ही साधना करके आए हो तो शीघ्र ही मिल जाती है। वे पूर्व जन्म में योग, तपस्या करके आएं थे, दिव्य चेतना लेकर आए थे। आध्यात्मिक ज्ञान उनमें पहले से था। आम पका हुआ था, थोड़ी सी तेज हवा बही और आम नीचे गिर गया।

        इसलिए मैं कह रहा हूँ कि हमारे शरीर को बढ़ने नहीं देना है, निरन्तर एक जगह, एक पोस्चर में बैठने की आदत डालना है, हमेशा सवेरे उठकर थोड़ी सी एक्सरसाइज, योग आदि फिजिकल एक्टिविटी करना चाहिए। क्योंकि शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा तो ध्यान भी नहीं लगेगा और ध्यान में बैठ ही नही पाओंगे आप। दूसरा आज की डेट में, चाहे आप भक्ति के मार्ग में हो या किसी और मार्ग में थोड़ा सा ज्ञान होना जरूरी है कि हम ये क्यों कर रहे है। स्वस्थता भी अत्यंत आवश्यक है, नहीं तो शरीर आपको ध्यान में जाने ही नहीं देगा।

         बहुत सुंदर बात है, आप लोग यहां पर समझ लो कि ज्ञान ही अंत में मुक्ति का कारण बनता है। समाधि के बाद भी अगर ज्ञान उत्पन्न न हो ज्ञान प्रकट ना हो तो मुक्ति नहीं है 

        हमारा प्राणिक जो शरीर है, प्राण के ऊपर हम काम करते है, हम एक्सरसाइज करवाएंगे, मन और प्राण एक दूसरे से संबंधित है रिलेटिड है, एक दूसरे को कंट्रोल करता है। हम अगर प्राण को कंट्रोल कर ले, आपके अंदर  प्राण बिल्कुल रुक जाएं, ना आएं और ना जाएं तो मन भी रुक जाता, मन शून्य हो जाता और जैसे शून्य होता है तो आप महा शून्य में प्रवेश कर जाते हैं। जैसे ही मन शून्य होता है आपके अंदर की कुंडलिनी शक्ति भी जाग्रत हो जाती है। तत्क्षण जाग्रत हो जायेगी जैसे ही मन शून्य होगा। हठयोग में प्राण के ऊपर में काम करते हैं। प्राण को, श्वांस को नियंत्रित करके, मन को शून्य करें या ध्यान में जाकर आप मन को शून्य कर लें आप तो प्राण रूक जाएगा।

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