गुरू नहीं तो जीवन व्यर्थ
गुरू की क्यो आवश्यकता है? गुरु तो परमपिता परमेश्वर ही होता है। यह शरीर तो आज है, कल नहीं रहेगा इसलिए कभी भी किसी गुरू के शरीर के प्रति आपको आसक्त नहीं होना चाहिए क्योंकि जो सत्य है वह सदा रहता है, जगह-जगह प्रकट होता रहता है और मुक्ति, मोक्ष, प्रेम, सत्य की गंगा बहाते रहता है। जिस प्रकार से रात-दिन पृथ्वी घूम रही है, सूरज भी घूम रहा है, ऐसा नहीं है कि सूरज नहीं घूमता; प्रकृति में ऐसी कोई चीज नहीं है जो घूमती नहीं है, प्रत्येक चीज घूमती है। पूरी गैलेक्सी घूम रही है, आकाश गंगाएँ घूम रही है, सब कुछ घूमता है। इस प्रकृति में जब जीवों की उत्पत्ति हुई, जल से जीवों की उत्पत्ति हुई और अनेक प्रकार के जीव बने।
ऐसा नहीं है कि केवल (सीधे) मनुष्य बने। गाय-बकड़ी, पशु- पक्षी, कीड़े-मकोड़ें, पेड़-पौधें बहुत प्रकार हैं। तो प्रकृति में सारी चीजें चक्र लगा रही है, (शास्त्रों के अनुसार जीव भी 84 लाख है।) इस प्रकार से जीव भी 84 लाख योनियों के चक्कर लगाता है। पैदा हो रहा है यह शरीर, फिर खत्म हो रहा है तो शरीर, स्थूल रूपी शरीर, इसका नाश हो जाता है, यह (पंच) तत्वों में मिल जाता है लेकिन शरीर के अंदर मन है और मन में संस्कार संलग्न है। संस्कार कैसे बनता है? जो हम प्रत्येक कार्य करते है, प्रत्येक सोच जो हम सोचते है, प्रत्येक दैहिक और मानसिक क्रियाएं जो करते हैं उसकी छाप हमारे मन पर पड़ती है और वह छाप ही संस्कार का रूप ले लेती है जिसे संस्कृत में हम संस्कार कहते हैं। यही संस्कार समष्टि रूप में हमारे अंदर हमारा चरित्र बनाता है। (शास्त्रों के अनुसार संस्कार का एक अर्थ शुद्धि भी है जोकि 16 संस्कार पूर्ण करके की जाती है, परन्तु गुरूजी यहां उन संस्कार की बात नहीं कर रहे।)
इस प्रकार, स्थूल शरीर का नाश हो जाता है लेकिन मन में संलग्न जो संस्कार है समष्टि रूप में, इसका नाश नहीं होता है लेकिन मन में संलग्न संस्कार अति सूक्ष्म से सूक्ष्म है, स्थूल शरीर के नाश की भांति उनका नाश करने का उपाय यहां नहीं है। लेकिन प्रत्येक जीव उन संस्कारों का मन सहित नाश करने का प्रयास करता है जब कोई गुरु आकर बताता है कि तुम्हें अपने संस्कार और मन को नाश करना है। इनका जब नाश हो जायेगा तब 84 लाख योनियों का जो चक्र चल रहा है, इसमें से तुम निकाल जाओगे। मन सहित संस्कार जो संलग्न है, इसके नाश से तुम निकल जाओंगे। यह बीज रूपी है, यह बीज खत्म हो जाता है फिर। तो यह संस्कार और मन जो चित (मन, बुद्धि, अहंकार के समन्वय को यहां चित कहा गया है) के रूप में पड़ा हुआ है वही बीज है। बिना उसके नाश किए मुक्ति मिलने वाली नहीं है। उसका नाश होगा यानी कि जब बीज खत्म होगा तो आपको मुक्ति मिल जाती है।
अव्यक्त प्रकृति की त्रिगुणात्मक शक्ति जब सर्वव्याप्त परमात्मा के प्रभाव में आती है तो अपने को व्यक्त करना आरम्भ करती है अर्थात् सृजन करना आरम्भ करती है। इसी प्रक्रिया में जीवात्मा का भी सृजन होता है जिसको विभिन्न कारणों से अपने मूल स्वरूप से पृथक हो जाने का भ्रम हो जाता है और वो अपने आपको एक पृथक सत्ता मानने लग जाती है जिससे उसकी विभिन्न गति की यात्रा आरम्भ हो जाती है और यह यात्रा तब तक जारी रहती है जब तक कि जीवात्मा अपने मूल स्वरूप को ना पा लें। इसको ही आत्म-बोध, आत्म-साक्षात्कार आदि नामों से जाना जाता है और साधकों को अपने मूल स्वरूप को पुनः पा लेने के मार्ग को दिखाने के लिए ही गुरू का अवतरण होता है।
तो प्रकृति में सारी चीजें चक्कर लगा रही है, इसी तरह से, ये मनुष्य, जीव, जंतु जितने भी हैं, ये भी सारे चक्कर लगाते हैं। कोई एक (बिरला) होता है जिसके पास गुरु आता है और बताता है कि अब चक्कर से निकलों और इन चक्करों से निकलने का यह मार्ग है। निकल जाओंगे तो तुम्हारे सारे बन्धन खत्म हो जाएंगे और तुम्हें मुक्ति मिलेगी।
मुक्ति की प्राप्ति, यानी कि मुक्ति, जब तक बंधन है तब तक मुक्ति है। शरीर में बिमारी भले हो, लेकिन अन्दर से आप परम आकाश में मिल जाते हैं, शरीर रूपी कोठरी में आप सीमित नहीं रहते। सारी प्रकृति रूपी सीमाओं को लांग जाते हैं, पार कर जाते हैं, अनन्त स्वरूप हो जाते हैं। गुरु की आवश्यकता जीवन में इसीलिए होती है। चाहे वह गुरु हमारा कोई किताब हो, कोई यूट्यूब वीडियो हो या आपके समक्ष साक्षात् कोई बैठा हो या प्रकृति के किसी भी स्रोत से आपको ज्ञान मिल रहा है, मुक्ति के लिए।
गुरु दीक्षा भी देता है। गुरु-दीक्षा, जिन लोगों की पात्रता होती हैं, उन्हीं को मिलती है। जिनके हृदय की शुद्धि नहीं हुई है, उनको गुरु जल्दी दीक्षा नहीं देता है। हृदय का शुद्धिकरण बहुत जरूरी है। आपके सूक्ष्म शरीर का शुद्धिकरण भी बहुत जरूरी है। आप अगर नकारात्मक गुणों से भरे हुए है, उस वक्त गुरु दीक्षा नहीं देता। निर्मल, कोमल, सरल, साधारण जब हृदय होता है, तो गुरू तीन तरीकों से दीक्षा दे सकता है, दृष्टि से दृष्टिपात कर सकता है, मंत्र दीक्षा दे सकता है या मंत्र की जगह कोई ध्यान दीक्षा दे सकता है। स्पर्श, शक्तिपात दीक्षा दे सकता है। वह गुरू जो ब्रह्म में लीन होता है, जो परम शुद्ध चेतना के साथ एक होता है, वह ही शक्तिपात या दृष्टिपात दीक्षा दे सकता है। तो दीक्षा देने का मतलब है कि वह परम् शुद्ध चेतना आपके अंदर में उतारता है, आपके अंदर स्थापित करता है, आपके अंदर रोपण करता है जिस प्रकार से एक बीज को हम पृथ्वी में रोपण करते है, फिर वह बीज वृक्ष बनता है, बड़ा होता है, उस पर फल लगते हैं। इसी प्रकार से, वो परम शुद्ध चैतन्य स्वरूप गुरु आपके अंदर परम चेतना स्थापित करता है और वह चेतना, वह शक्ति अगर कोई हृदय के तल पर काफी हद तक शुद्धीकरण को प्राप्त किया हुआ, कोई शिष्य होता है तो गुरू के शक्तिपात से तुरन्त उसकी कुंडलिनी जागरण होती है और आत्म साक्षात्कार भी करता है, कोई-कोई तो निर्विकल्प समाधि में भी चले जाते हैं।
लेकिन जब कोई शिष्य उतना तैयार नहीं होता है, तो भी गुरू शक्तिपात जब करता है, शक्ति जब स्थापित करता है, ट्रांसमिट (संचारित) करता है, जब उस (ब्रह्माण्ड की ओर संकेत करते हुए) ऊर्जा को ट्रांसमिट करता है, वह परम चेतना, परमेश्वर रूपी ऊर्जा होती है और उस ऊर्जा की स्थापना जब की जाती है, स्पर्श की जाती है और जब आप (साधक में) जाती है तो वह ऊर्जा आपके संस्कारों का नाश करने लगती है, वह ऊर्जा आपके प्रारब्ध का भी नाश करने लग जाती है। वह ऊर्जा आपकी दिशा निर्धारित करती है जो आगे जाकर स्टेप बाय स्टेप (क्रमशः) आपको कुंडलिनी जागरण, आत्मबोध, सत्य स्वरूप तक पहुँचाने का काम करती है।
एक बार जब कोई सिद्धगुरू किसी को दीक्षा दे दें, तो उसकी मुक्ति निश्चित हो जाती है। इस तरीके से, पृथ्वी पर सभी को, कहीं ना कहीं से, किसी न किसी गुरु की कृपा मिली हुई रहती है। वह गुरु जो परम परमेश्वर, ब्रह्म में लीन होता है, जब उसमें ऊर्जा स्थापित करता है तो उसकी गंदगी को साफ करते-करते उसे आगे लेकर जाता है। हमारे यहां भी, आज तक जितने लोगों को हमने दीक्षा दी है, प्रायः सभी स्टेप बाय स्टेप कुंडलिनी जागरण और कुछ लोग तो आत्मबोध तक पहुँचे। शक्तिपात उपरान्त, अधिकतम लोगों ने छः महिने में ही आत्मबोध कर लिया। कुछ लोगों को एक-दो साल लग गये। लेकिन वह रोपित ऊर्जा अग्नि होती है, क्रिया-शक्ति होती है, जिसके अन्दर में एक बार उतर जाएं फिर उसका बचना (मार्गच्युत होना) मुश्किल है।
चाहे वो साधक इधर से उधर भटक क्यों ना जाएं, फिर भी वह ऊर्जा, वह शक्ति उसको उस राह पर लेकर आती ही है जिससे उसे एक दिन सत्य का बोध हों, स्व का बोध हो, आत्मा का बोध हो जिसमें मैं रुपी, अहंकार रूपी, माया रूपी, बंधन रूपी अंदर में बैठा हुआ, बेचैन करने वाला, तंग करने वाला, बांटने वाला, भेदभाव पैदा करने वाला, राक्षस का नाश हो जाता है, अज्ञानता का नाश हो जाता है। ज्ञान का उदय हो जाता है और वह ज्ञान विशुद्ध ज्ञान होता है। निर्लिप्त ज्ञान होता है। चाहकर भी अंदर में किसी के लिए नफरत हो नहीं सकती है जब पूर्णतया को प्राप्त करें। जब पूर्ण बन जाता है, प्रेम होता है, शुद्धता होती है, शुद्ध हृदय होता है, प्रेम की भाषा होती है, कोई द्वेष नहीं बचता, सारे द्वेष का नाश हो जाता है, चाहे वे नकारात्मक द्वेष हो, चाहे वे विधायक द्वेष हो; सारे द्वेषों का नाश हो जाता है। आज के समय में वैसे भी गुरूओं का समय बहुत खराब है अर्थात् बहुत सारे गुरू है उनमें से कौन सत्य है, सिद्व है? साधको को पता ही नही चलता है। इसलिए बहुत सोच समझकर बोलना पड़ता है। जैसे आप लोग यहां बैठे है, आप लोग तो अपनी ही ऊंचाई (स्तर) से देखेंगे चीजों को। जिस ऊंचाई (तल) पर आप, जिस बिंदु पर आप खड़े हैं और मैं वहाँ से बोल रहा हूँ जहाँ सारे बिंदु ही खत्म हो जाते हे, सारे लेवल (स्तर) ही खत्म है।
जिस प्रकार माँ की कोख में बच्चा पलता है, जन्म लेता है तो माँ अपने बच्चों की देखभाल करती है, प्रेम करती है, बच्चे को भूख लगती है तो बच्चा रोता है फिर माँ दूध पिलाती है। जब बच्चा माँ की गोद में होता है तो माँ लोरियाँ गाती है, थोड़ा प्रेम कर देती है, तो वह सो जाता है, सेफ्टी फील (सुरक्षित महसूस) करता है। इसी प्रकार, माँ की तरह ही गुरु होता है साधको के लिए। क्योंकि माँ और बच्चा दोनों का जो रिश्ता है अति उत्तम रिश्ता है। ठीक इसी प्रकार, गुरु जिसके अंदर उतरता है, उस साधक और गुरु के बीच इसी प्रकार एक रिश्ता होता है, सत्य का रिश्ता और प्रेम का रिश्ता होता है जोकि बिना भेदभाव का। गुरू उसके दिल में उतरता है, उसके दुःख को देखता है, महसूस करता है, समझता है, प्रेम करता है। जैसे माँ चाहती है कि मेरे बच्चें हमेशा सदा खुश रहें, हंसते रहें, फूल खिलते रहें उसके जीवन में, गुरू भी चाहता है सब (साधक) खिल जाएं। बीज तो है सबमें, संभावना तो है, अतः सब खिल जाएं।
तो जिस व्यक्ति के जीवन में कोई सद्गुरू नहीं उतरें, उसका जीवन व्यर्थ ही चला जाएगा और मानव जीवन, मानव योनी मिलना, कितने चक्करों को लगाकर मानव योनी मिलती है। अब कोई पूछेगा, ये 84 लाख योनी सत्य है क्या? तो मेरे प्यारे, जब सब कुछ चक्कर लगा रहा है तो आप क्यों नहीं लगाएंगे। सब कुछ तो चक्र में है ना। चक्कर चल रहा है, तो आप चक्कर क्यों नहीं लगाएंगे। आप भी चक्र में है, ये सत्य है। चाहे 84 लाख से कम हो या ज्यादा हो लेकिन चक्र तो चल ही रहा है। इसको गुरु जान लेता है फिर संस्कार जो मन में पड़ा हुआ है, मन सहित उसका नाश होता है। प्रत्येक मनुष्यरूपी देहधारी जीव हमेशा आंनद के पीछे ही भागता है, परम शांति के पीछे ही भागता है चाहे वह जीवन में कुछ भी कर लें, उसके हर करने के प्रयास में एक आनन्द की झलक होती है। आनन्द का प्यासा है वह। प्रेम का प्यासा है। शांति चाहिए उसे। उसकी हर करनी में शांति है। लेकिन सब कुछ करने के बाद भी, सब कुछ प्राप्त करने के बाद भी शांति तो आई थी, क्षण भर के लिए, लेकिन निकल गई। आनंद की एक झलक तो मिली लेकिन निकल गई। तब गुरु आता है और हाथ पकड़ता है, छोटे बच्चे की तरह और कहता है कि अब भटकना बंद कर तू प्रकृति में। क्योंकि प्रकृति सदा अपना नृत्य दिखाती है। नृतकी है, अपना नृत्य दिखाती रहती है। यह डांस करते रहती है और आपको लुभाते रहती है, अपनी और खींचते रहती है और जीव खींचा चला जाता है, कई जन्मों-जन्मों तक खींचा चला जाता है।
तब कोई गुरू आता है और बताता है कि प्रकृति में तुम्हे जो सुख मिल रहा है वह क्षण भंगूर है। तुम स्वयं शांति, परमानंद का अनंत, अजन्मा सागर हो, तुम शाश्वत हो, निश्चल हो, निराहार हो, तुम कहाँ भटक रहे हो? धीरे-धीरे, धीरे-धीरे हाथ पकड़ कर, सिखाते-सिखाते, उसके जीवन में उतरते-उतरते उसे अपने पास लाता है, जहाँ (जिस स्तर) पर वह होता है, वहाँ उसे लेकर आता है। मैं कहता हूँ कि जब मनुष्य रूपी शरीर मिला है तो प्रत्येक व्यक्ति को साधना करनी चाहिए। परमात्मा का चिंतन-मनन करना चाहिए। आत्मा को जानना चाहिए। सत्य को जानना चाहिए। अगर इस जन्म में ना भी मिलें तो दूसरे जन्म, तीसरे जन्म या चाहे कोई भी जन्म में एक दिन तो मिलेगा। लेकिन यात्रा शुरू ही नहीं करोगे तो मिलेगा कैसे?
मुझे कुछ लोग कहते है कि आप इतने यंग (युवा) दिखते है, इतनी कम उम्र में बुद्धत्व को कैसे पा लिया, आपने? मैं कहता हूँ, आप मेरे स्थूल शरीर को देख रहे है, आपको क्या पता, कई जन्मों से साधना-तपस्या जारी थी। सत्य की खोज जारी थी। चेतना में आपसे बहुत बूढ़ा हूँ मैं। आठ साल, दस साल, बारह साल के बच्चे को बुद्धत्व प्राप्त हो सकता है। आप साठ साल, अस्सी साल के हैं लेकिन आपको नहीं भी हो सकता है। क्योंकि उनकी यात्रा पहले से शुरू हुई थी और इस जन्म में उनकी यात्रा खत्म हो रही है।
वह बहुत भाग्यशाली होता है जिसको गुरु की कृपा मिल जाती है। गुरु की दीक्षा मिल जाती है। दीक्षा और कृपा पाने के लिए उसके अंदर पात्रता होती है तब ही गुरु के समक्ष बैठ भी पाता है, नहीं तो बैठ ही नहीं सकता है। उसके लिए कमाया है? अगर कमा कर आया है, तभी वहाँ तक पहुँच पायेगा, नहीं तो कभी नहीं पहुंच पाएगा, लाख कोशिश कर लो। ये सारी चीजें प्रकृति के प्रबंध में समाहित है, अचूक है।
आज पूर्णिमा के विशेष ध्यान में, अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित करना है, समर्पण, भक्ति और श्रद्धा वह सीढ़ी है जिससे गुरु के माध्यम से परमात्मा में छलांग लगाई जा सकती है। गुरु एक द्वार बन जाता है। लेकिन आपके हृदय में यह परम श्रद्धा, भक्ति और समर्पण, उस सत्य-सनातन परमात्मा, शिव शांत अद्वैत के प्रति होनी चाहिए क्योंकि वही सबका कल्याण स्वरूप है। आपके रोम-रोम में, शरीर के कण-कण में, नस-नस में, श्रद्धा, भक्ति और समर्पण की शुद्ध ऊर्जा प्रवाहित होना जरूरी है।
समर्पण से हम बहुत जल्दी उतर सकते हैं। आप समर्पण से बहुत जल्दी वहां उतर सकते हैं। तो आज के सेशन में, जो लोग आए हैं और जो लोग लाइव भी सुन रहे हैं, देख रहे हैं, मैं तो यही कहूंगा कि आज अपना चिंतन-मनन, ज्ञान, अज्ञान सब छोड दें, कहीं रख दें और समर्पण के भाव में उतरें। क्योंकि अंत में, ज्ञान को भी छोड़ना पड़ता है और अज्ञान को भी छोड़ना पड़ता है। ज्ञान, अज्ञान, अस्तित्व, अन्स्तित्व, आत्मा, अनात्मा सभी कुछ। एक ओर देखें- ज्ञान को, अस्तित्व को, आत्मा को; अब दूसरी ओर देखें- अनात्मा को, अन्स्तित्व को, अज्ञान को और अब दोनों को छोड़ दें। ज्ञान को भी छोड़ दें, इस अस्तित्व को भी छोड़ दें। आत्मा के बारे में, बुद्धि में जो ज्ञान पड़ा हुआ है, उसे भी छोड़ दें कि आत्मा यह है, यह है, यह है। यह अनात्मा है, यह अन्स्तित्व है, इसे भी छोड़ दें। आप रिक्त, खाली हो जाएंगे, बिल्कुल। इस भाव में उतरें। रिक्तता में उतरें जो अनन्त है। यह है, वह है, ऐसा है, वैसा है, गुरू कौन है, गुरु क्या करेगा, ध्यान में क्या होगा, क्या करवायेंगे? ये सब कुछ छोड़ दें और शांत होकर चुपचाप बैठें। ध्यान भी नहीं करना है। ध्यान करना भी कर्त्ता भाव है। बस आज के दिन ध्यान में होना है। ध्यान में बस होना है, करना नहीं है। करना यानी कि कर्त्ता भाव है। शरीर जैसे बैठा, ध्यान बन जाना है। प्रक्रिया बन जाना है। कोई ध्यान ही नहीं रहना चाहिए। प्रक्रिया ही रहनी चाहिए। तो ध्यान में हो जाना है। ध्यान करोगे तो फंस जाओगे, यह बंधन है। ये बेड़िया है। ध्यान में बस सम्पूर्ण हो जाना है।
Leave a Comment