ध्यान साधना में मेरी प्रगति हो रही है या नहीं?
"संसार के प्रति अभी भी आपके अंदर आसक्ति है, संसार के इंद्रिय विषय को अभी भी खूब भोगना चाहते हैं तो यह नहीं होगा। दोनों तरफ एक साथ नहीं जा सकते। आपको परमात्मा को भी पाना है और संसार में भी मजे लेना है, तो फिर यह मुश्किल है। या तो संसार के प्रति आसक्त होकर मजे लीजिए या संसार के प्रति अन्यमनस्क होकर ध्यान साधना कीजिए।"
नमस्कार। एक साधिका का प्रश्न है कि मैं ध्यान करती हूँ, साधना करती हूँ लेकिन मैं कैसे जानू कि मेरी साधना सही है, मैं सही रास्ते पर जा रही हूँ, सही तरीके से मेरी साधना हो रही है, मैं कैसे जानू? कोई भी व्यक्ति जब ध्यान करता है तो उसके मन में इस तरह के प्रश्न उठते है, वह कंफ्यूज रहता है कि पता नहीं, मेरी साधना कहीं गलत तो नहीं है, क्या मैं सही तरीके से ध्यान साधना कर रहा हूँ या नहीं कर रहा हूँ। तो कैसे जानेंगे? तो जानने के लिए सहज और सरल, बिल्कुल आसान तरीका है, निरीक्षण।
कई साधक कई वर्षों से साधना कर रहे हैं, ध्यान कर रहे हैं, अध्यात्म की राह पर चल रहे है, गुरु से मार्गदर्शन लेते हुए, आगे बढ़ रहे हैं, दस साल से, पन्द्रह साल से, बीस साल से भी अधिक समय से ध्यान कर रहे हैं। फिर भी कई बार, कुछ साधक मुझसे यह प्रश्न पूछते हैं कि अभी तक मेरे साथ कुछ हुआ क्यों नहीं, जबकि मैं मुंबई में, ओशो इंटरनेशनल आश्रम में, पूरे बिगिनिंग से लेकर एडवांस निर्वाण का भी, समाधि वाला सेशन कर लिया, किन्तु अभी तक मुझे कुछ भी अनुभूति क्यो नहीं हुई। मैं आगे बढ़ रहा हूँ या नहीं बढ़ रहा हूँ, पता ही नहीं चलता है, तो कई साधकों के ऐसे प्रश्न रहते हैं।
मेरा कहना है कि आपको इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए, बस यह जान लेना है कि जब आप इतने दिनों से साधना, मेडिटेशन, ध्यान कर रहे हैं, तो आपके अंदर वैराग्य की स्थिति आई या नहीं आई? विरक्ति आई या नहीं आई? संसार के प्रति आप अन्यमनस्क, अनमन हो गये है या नहीं हुए है या अभी भी आपके भीतर इन्द्रिय सुखों को भोगने की अभिलाषा किसी कोने में है? क्या अभी भी आप इंद्रिय विषय के भोग में लुड़क जाते हैं? यदि ऐसा है तो आप साधना में आगे नहीं बढ़े हैं। इतने वर्षों तक ध्यान करने के बावजूद भी आप वहीं के वहीं हो।
साधना में, आगे बढ़ने के बाद, चाहे कोई भी मार्ग से जा रहे हो आप, भक्ति मार्ग से जाए, कर्म मार्ग से जाए, कोई मंत्र, हठ योग, ध्यान मार्ग से जाएं लेकिन आपके अंदर में अभी तक वैराग्य आया ही नहीं, संसार के प्रति, तो आप साधना में बहुत पीछे हैं, भले आपको इस राह में छोटे-मोटे कुछ अनुभव हुए होंगे, लेकिन आप साधना में बहुत पीछे है। संसार के प्रति वैराग्य के बाद आपमें विरक्ति आ जाती
है। अब संसार में कुछ नहीं दिखता, कुछ रस नहीं मिलता है। ऐसी अवस्था के बाद ही आप सोचे कि आप साधना में आगे बढ़ चुके हैं। अब इसके आगे आपको बहुत अलग प्रकार के अनुभव होने वाले है। ज्ञान उत्पन्न होने वाला हैं। ज्ञान आएगा और अंत में आपको मुक्ति मिलेगी। अंत में आप सत्य को जानेंगे। लेकिन बिना वैराग्य के, बिना विरक्ति के, आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि आप मुक्ति या आत्मा को जान सकते हैं या सत्य को जान सकते हैं। विरक्ति क्या है? संसार के प्रति अब कोई भी भोग अभिलाषा नहीं रह गई है। नहीं तो आप तीस, चालीस साल आंख बंद करके बैठे रहे, क्या फर्क पड़ने वाला है! थोड़ा शरीर शांत होगा, मन शांत होगा लेकिन ज्ञान तो उतरा ही नहीं अंदर। अभी भी बेटा, बेटी, हस्बैंड, वाइफ को लेकर आसक्ति है अंदर। बाहर के भोग भोगने की इच्छाएं है, तो हम कैसे सत्य तक पहुंच पाएंगे फिर। अगर किसी की बुद्धि, अभी भी संसार में ही फंसी है, भोग विलास में ही पड़ी हुई है तो उसे इसमें ही लिप्त रहना चाहिए। उसमें जो अतृप्ति है उसे तृप्त कर लेना चाहिए, जी लेना चाहिए। भोग विलास पूरे होने के बाद, यदि विरक्ति आ जाती है तो ही उसे इस मार्ग पर आना चाहिए। वैराग्य यानी कि अंदर किसी भी चीज के प्रति, कोई आसक्ति ना हो तो उस अवस्था को हम विरक्ति कहते हैं। उसके बाद यदि कोई अभिलाषा है तो वह है सत्य पाने की अभिलाषा। आत्मा के अमृत को पाने की अभिलाषा। सत्य को जानने की अभिलाषा। अंत में, यह भी समाप्त हो जाती है।
अगर वैराग्य नहीं है, सत्य को जानने की अभिलाषा नहीं है, यदि ये दोनों चीजें अभी भीतर नहीं है और आप बोलेंगे कि मैं आत्मा को जानना चाहती हूँ, मैं ध्यान भी करती हूँ, मैं साधना मार्ग पर हूँ, मैं भक्ति करती हूँ तो आप कहीं नहीं पहुंचेंगे। संसार के प्रति अभी भी आपके अंदर आसक्ति है, संसार के इंद्रिय विषय को अभी भी खूब भोगना चाहते हैं तो यह नहीं होगा। दोनों तरफ एक साथ नहीं जा सकते। आपको परमात्मा को भी पाना है और संसार में भी मजे लेने हैं तो फिर मुश्किल है। या तो संसार के प्रति आसक्त होकर मजे ले लीजिए या संसार के प्रति अन्यमनस्क होकर ध्यान साधना कीजिए।
तो कोई भी इंसान जो ध्यान कर रहा है, कई सालों से ध्यान करने के बाद भी, वह साधना में सही जा रहा है या नहीं, उसे अपना मूल्यांकन स्वयं करना है। अगर उसके अंदर संसार के प्रति अन्यमनसक की स्थिति नहीं आई है तो वो इस राह में बहुत पिछड़ा हुआ है, उसको थोड़ा अंदर निरीक्षण करना चाहिए कि संसार के प्रति, बेटा-बेटी के प्रति, घर-परिवार के प्रति, नौकरी के प्रति जो भी डिजायर, किसी लक्ष्य, गोल आदि के प्रति, किसी भी चीज के प्रति मेरे अंदर कोई आसक्ति है क्या, तो उस आसक्ति को तुरंत खत्म करें। उसको जला दें। जैसे ही वह जला देगा तो तुरन्त आगे बढ़ने लगेगा। स्वयं के अंदर इसकी खोज करने के लिए बहुत सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। ध्यान में बैठकर खोजें। चलते-फिरते खोजें। रोटी बनाते हुए खोजें, खाते-पीते हुए खोजें लेकिन उसको खोजें कि मेरे अंदर कोई आसक्ति है क्या? मन ने किसी चीज को पकड़ कर रखा है क्या? जब तक मन पकड़े हुए रहेगा तब तक अंदर भय की स्थिति भी बनी रहेगी।
आप साधना करें और बेटा-बेटी के लिए प्रार्थना करें कि उनको नौकरी मिल जाएं, एडमिशन मिल जाएं, अच्छी बहु मिल जाएं, उनको सफलताएं मिल जाएं, इन सब आसक्तियों के होते हुए, आप परमात्मा को भी पाना चाहते हैं तो इसका मतलब आपको परमात्मा पर विश्वास नहीं है। तो परमात्मा कहेगा तू अभी उधर ही रह। सब जगह से तो कट गई लेकिन अभी घर परिवार में अटक गई। अगर आप घर परिवार से भी कट गए तो फिर आपको निरीक्षण करना है कि अब कहां अटके हुए है, उसकी भी खोज करना है। साधक को खुद को ही खोज करनी पड़ेगी। भीतर झांक-झांक कर, सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करना पड़ेगा कि मैं कहां अटका हुआ हूँ।
सत्य को जानना, खुद को जानना इतना आसान नहीं हैं। इसमें कई लोभ-बाधाएं आती है। यह तक कि कोई भगवान भी दिख जाएं, तो ठहरना नहीं है। यदि आपके लिए दुनिया में अभी भी कोई कृष्ण है, कोई शिव है, कोई देवी-देवता है, जिनके दर्शन की अभिलाषा है, तो अभी आप आत्म साक्षात्कार से दूर हो। आत्मा को जानना इतना आसान नहीं है। आपके अंदर कोई भगवान भी है तो उसके प्रति आसक्ति मिटानी पड़ेगी। जब तक यह आसक्ति है तब तक आत्मा को कैसे जान पायेंगे। आत्मा को जान लेने का मतलब है, उस तत्व को जान लिया, उस चीज को जान लिया कि अब आपको जानने के लिए कुछ बचा ही नहीं।
ठीक है, तो आप इस प्रकार से साधना में आगे बढ़ रहे है या नहीं, अपने विरक्ति यानी बैरागी कि स्थिति चेक कीजिए। यदि विरिक्त नहीं आई है तो आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं। आप संसार के भी मजा लेने चाहते हैं और परमात्मा को भी पाना चाहते है, ऐसा नहीं होता है। आप माया में भी रहना चाहते हैं और सत्य को भी पाना चाहते हैं, ऐसा नहीं हो सकता है। संसार का असली मजा तो एक बुद्ध पुरूष ही ले सकता है क्योंकि वह सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता है, उसे किसी में कोई आसक्ति होती ही नहीं है।
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